________________
२६२ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
उल्लंघन करना अनुपयोगी सामान इकट्ठे करना ( इस अभिप्राय से कि यह तो अपनी मर्यादा में मैंने रखा ही नहीं है) भी अतिचार है ।
इस प्रकार पंचम अणुव्रत का शुद्धतापूर्वक पालन करना चाहिए । तीन गुणवत
पांच अणुव्रतों की रक्षा एवं उक्त अणुव्रतों में विशेषता लाने तथा उनकी मर्यादाओं को और अधिक कम करने की दृष्टि से श्रावक के लिए तीन गुणव्रतों का विधान किया गया है ।
जैसे - दिग्परिमाणव्रत से मर्यादित क्षेत्र से बाहर के जीवों को अभयदान देने से प्रथम अणुव्रत को लाभ पहुँचता है, छहों दिशाओं में क्षेत्र मर्यादित हो जाने से उसके बाहर के क्षेत्र का असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग अनायास ही हो जाता है। सातवें व्रत से उपभोग - परिभोग का परिमाण हो जाने परिग्रह की मर्यादा और भी कम (संकुचित) हो जाती है । भोगोपभोग की मर्यादा होने से आरम्भजन्य हिंसा में भी कमी हो जाती है, ब्रह्मचर्य की मर्यादा की सुरक्षा हो जाती है और स्तेय तथा असत्य का भी प्रसंग नहीं आता । इसी प्रकार अनर्थदण्डविरमणव्रत ग्रहण कर हिंसादि की. जो मर्यादा रखी थी, उसमें निरर्थक हिंसादि का त्याग हो जाता है ।
इस प्रकार तीनों गुणव्रत अणुव्रतों की पुष्टि, सुरक्षा और विशिष्टता के लिए हैं। ये अणुव्रतों के गुणों को बढ़ाते हैं, इसीलिए इनका नाम गुणव्रत है । (१) दिक्परिमाणव्रत
असंख्यात योजन परिमित यह लोक है । इसमें लोभवश या अन्य प्रयोजनवश निराबाधरूप से गमन करना अणुव्रती श्रावक के लिए उचित नहीं है ।
"
इस लोक में दो प्रकार से जीव गमन करता है - द्रव्य से और भाव से । द्रव्य से -- काया से गमन करना, और भाव से अशुभकर्म करना, जिससे गमन करना पड़े । भाव से गमन न करने के लिए वैसे अशुभकर्मों पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है । द्रव्य से — काया द्वारा दश दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊँची-नीची, नैऋत्य, आग्नेय, वायव्य और ईशान) में गमन का परिमाण करना चाहिए ।
दिशापरिमाणव्रत का अर्थ है, पूर्वोक्त दश दिशाओं में से जिस दिशा में जाने का जितना परिमाण किया है, उससे आगे नहीं जाना । यदि ऐसी मर्यादा न हो तो मनुष्य धंधे के लिए कितनी ही दूर चला जाए और अनेक