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२५२ | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका
आदि कोई उपद्रव हो उसका त्याग गृहस्थ को अवश्य कर देना चाहिए, ताकि उसकी चित्तसमाधि बनी रहे । '
(५) सुयोग्य व्यक्ति का आश्रय लेना - गृहस्थ को ऐसे सुयोग्य, सदाचारी, वचनपालक, वीर एवं रक्षासमर्थ व्यक्ति का आश्रय लेना चाहिए, ताकि संकट, आपत्ति या विघ्न आने पर वह उसकी रक्षा कर सके तथा सहायक बन सके । "
(६) आयोचित व्यय - गृहस्थ को अपनी आमदनी के अनुसार ही खर्च करना चाहिए | विवाह-शादियों या उत्सव पर्व आदि अवसरों पर देखादेखी फिजूल खर्च करना कथमपि सुखावह नहीं होता । आय से अधिक व्यय करने से कर्जदार होना पड़ता है, जिसके लिए व्यक्ति को सदैव चिन्तित, पीड़ित, पददलित रहना पड़ता है । इसका मतलब यह भी नहीं है किं गृहस्थ यथोचित खर्च भी न करे, कृपणता दिखाए, किन्तु अभिप्राय यह है कि गृहस्थ को मितव्ययी होना चाहिए ।
(७) प्रसिद्ध देशाचारपालन- जो किसी प्रकार से निन्दनीय, गर्हणीय न हों, ऐसे स्वदेशाचारों का पालन करना चाहिए । स्वदेशी वेश-भूषा, भाषा तथा रहन-सहन रखने में किसी प्रकार को गौरवहीनता नहीं है ।"
(८) माता-पिता की विनय - माता-पिता की तथा घर में बुजुर्गों की विनय, भक्ति, आज्ञापालन, प्रणाम, आदर - बहुमान, सेवाशुश्रूषा आदि करनी चाहिए | माता-पिता को सुख-शान्ति पहुँचाए, उनके चित्त में कषाय न भड़कें,
शान्ति से रहें, इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए । उन्हें धार्मिक कार्यों - दानशीलादि में तथा अन्य धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्त करे ताकि वे परलोक में भी सुख प्राप्त कर सकें । "
(e) स्व प्रकृति के अनुकूल समय पर भोजन - स्वस्थता के लिए अपनी प्रकृति के अनुकूल भोजन हितावह होता हैं । प्रकृति के प्रतिकूल और बिना रुचि, भूख अथवा अजीर्णावस्था में भोजन करना, जान-बूझकर रोगों को बुलाना है । गृहस्थ को वैसे पदार्थ नहीं खाने चाहिए, जो गरिष्ठ, दुष्पाच्य एवं तामसिक हों । आरोग्यशास्त्रियों का मत है कि भोजन करते समय उदर
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तथा उपप्लुत स्थानत्याग इति । स्वयोग्यस्याश्रयणमिति ।
३ आयोचितो व्यय इति ।
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तथा प्रसिद्धदेशाचारपालनमिति ।
तथा मातृ-पितृ पूजेति ।
- धर्मबिन्दु १1१६-१७, १८