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गृहस्थधम-स्वरूप | २५३
के तीन भागों की कल्पना कर लेनी चाहिए-एक भाग अन्न से भरे, दूसरा भाग पानी से भरे और उदर का एकभाग खाली रखा जाना चाहिए। इस दृष्टि से परिमित, हित, पथ्य भोजन ही गृहस्थ को करना चाहिए।'
(१०) अदेश-काल-चर्यात्याग-जुआ खेलने के अड्डे, वेश्यालय, मदिरालय, चाण्डालगृह, मच्छीमारों के घर, कसाई-खाने आदि स्थान तत्त्वज्ञ धर्माचार्यों ने अयोग्य माने हैं। इन स्थानों में सज्जन गृहस्थ को नहीं जाना चाहिए। ऐसे स्थानों पर बार-बार जाने से पाप के प्रति घृणा घटती जाती है और हृदयगत कोमलता का स्थान कठोरता ले लेती है। साथ ही मध्यरात्रि तक इधर-उधर व्यर्थ ही घूमना-फिरना भी कई दृष्टियों से हानिकारक है। चोर, बदमाश, लुटेरे, गुडे ऐसे समय में ही फिरते हैं, शत्रु आदि के उपद्रव की तथा परस्त्रोलम्पट होने की शंका भी होती है।
(११) वेग आदि छह का अतिक्रमण न करें:-सैकड़ों कार्य हों, फिर भी निम्नलिखित ६ नित्यकृत्यों का अपने शरीरादि की रक्षा हेतु कदापि उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वे ६ बातें ये हैं
(i) वेग-शौचादि के आवेगों को न रोके । इन कुदरती हाजतों को रोकने से अनेक भयंकर रोग पैदा होते हैं । अतः मल, मूत्र को कभी रोकना नहीं चाहिए।
(ii; व्यायाम-व्यायाम न करने से शरीर-स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। नित्यभोजी गृहस्थ को, जहाँ तक शरीर में पसीना न आ जाए वहाँ तक शरीर को आयास देने वाली व्यायामक्रिया अवश्य करनी चाहिए । आचार्य कहते हैं-व्यायाम किये बिना अग्निदोपन, उत्साह, शरीर के अंगोपांगों में दृढ़ता आदि कैसे हो सकती है ?
(iii) निद्रा-गृहस्थ का शयन और जागरण नियमित होना चाहिए। अधिक देर तक सोते रहना या अधिक देर तक जागना बल, बुद्धि, स्वास्थ्य तीनों के लिए हानिकारक है। अधिक देर तक जागने से पाचनक्रिया बिगड़ जाती है और अधिक देर तक सोते रहने से आलस्य, सुस्ती तथा अनुत्साह बढ़ता है । अतः सोने तथा जागने के समय का कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिए। १ तथा सात्म्यतः काल भोजनम् ।' २ 'अदेशकालचर्या परिहारः ।'
-धर्मबिन्दु ३ 'वेग-व्यायाम-स्वाप-स्नान-भोजन-स्वच्छन्द-वृत्तिकालानोपरून्ध्यात् ।'
--नीतिवाक्यामृत स. २५।१०