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________________ २५० | जैन तत्त्वकलिका : अष्टम कलिका अादी विणिवित्ति सुहे पवित्तिय जाण चारितं अर्थात् - अशुभ से निवृत्ति और शुभ में या शुद्ध में प्रवृत्ति करना चारित्र है । चारित्र को आचरित करना चारित्रधर्म है | चारित्रधर्म का स्पष्ट अर्थ है - आचार धर्म | चारित्रधर्म के दो भेद शास्त्र में चारित्रधर्म के दो भेद बताए हैं - ( १ ) आगारचारित्रधर्म और (२) अनगारचारित्रधर्म ।' अनगारचारित्रधर्म में पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, परीषद्जय, तपस्या आदि आते हैं, जिनका वर्णन हम साधु-स्वरूप के अन्तर्गत कर चुके हैं । आगार चारित्र धर्म गृहस्थों के चारित्र धर्म को आचार्यों ने दो भागों में विभक्त किया है - (१) सामान्य गृहस्थधर्म और (२) विशेष गृहस्थधर्म | शिक्षण की तरह गृहस्थ धर्माचरण की भी ये दो भूमिकाएँ हैं । प्रथम भूमिका, जिसमें कि सामान्य गृहस्थधर्म का पालन किया जाता है। गृहस्थ विशेष चारित्रधर्म के. पालन की तैयारी के लिए मार्गानुसारी बनता है। इसमें गृहस्थ अन्याय, अनैतिक आचरण और अशिष्ट व्यवहार का त्याग करके सत्पुरुषों द्वारा प्रदशित मार्ग का अनुसरण करता है । जो मार्गानुसारी के गुणों की उपेक्षा करता है, वह श्रावक (विशेष) धर्म का अधिकारी नहीं हो सकता । सामान्य गृहस्थधर्म के सूत्र सामान्य गृहस्थधर्म उसे कहते हैं, कि कुल परम्परा से जो अनिन्द्य एवं न्यायपूर्वक आचरण चला आ जहा है, तदनुसार प्रवृत्ति करना । (१) न्याययुक्त आचरण -- - सद्गृहस्थ का यह सबसे बड़ा सामान्य धर्म है कि न्यायसंगत प्रवृत्ति करे। जुआ, चोरी, रिश्वतखोरी, मद्यमांस सेवन, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, शिकार, ये सब अन्याययुक्त प्रवृत्तियाँ हैं, इन दुव्यसनों से दूसरे प्राणियों पर अन्याय होता है, परिणामस्वरूप वह धर्म, नीति, सदाचार आदि से विमुख हो जाता है । १ चरित्तधम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - आगारचरित धम्मे, अणगारचरित धम्मे । - स्थानांग, स्थान
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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