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गृहस्थधर्म-स्वरूष | २४६
तथा सम्यक्तय, परीषहजप, तथा महाव्रतादि के आचरण द्वारा विशेषरूप से निर्जरा (कर्ममुक्ति) के लिए तथा मोक्षरूप साध्य को पाने के लिए सम्यक्चारित्र की आराधना - साधना भी अनिवार्य है ।
जो लोग कोरे ज्ञान (तत्त्वज्ञान) से ही मोक्ष मानते हैं, वे एकान्त अक्रियावादी बनकर धर्म का आचरण नहीं करते, कोरा ज्ञान बघारते हैं, ऐसे लोगों के लिए भगवान् महावीर ने कहा कि वाणी की शूरवीरता से वे अपने आपको आश्वासन देते हैं, परन्तु वास्तव में यह वाचिक आश्वासन - मात्र है ।'
ज्ञान, दर्शन और चारित्र में एकरूपता न होने का समाधान कमवाद इस प्रकार देता है - जानना ज्ञान का कार्य है । ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के पुद्गलों के क्षयोपशम होने पर प्रकाशित होता है । यथार्थ विश्वास होना श्रद्धा है, जो दर्शनमोह के पुद्गलों के अलग होने पर प्रकट होती है, सम्यक् आचरण करना तभी सम्भव है, जब चारित्रमोह कर्म के पुद्गल दूर हों ।
इस दृष्टि से ज्ञान आच्छादक पुद्गलों के हट जाने पर भी दर्शनमोह पुद्गल आत्मा पर छाए हों तो वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाने लेने के उपरान्त भी उस पर विश्वास नहीं जमता । दर्शन को मोहने वाले पुद्गल बिखर जाएँ, तब उस पर श्रद्धा हो पाती है। मगर चारित्र को मोहने वाले पुद्गलों के रहते उसका स्वीकार - आचरण नहीं हो पाता ।
सत्य की जानकारी और श्रद्धा के उपरान्त भी कामभोगों की मूर्च्छा छूटे बिना सत्य का आचरण नहीं होता । इसीलिए सत्य का आचरण श्रद्धा से भी दुर्लभ है | तीव्रतम कषाय के विलय से सम्यग्दर्शन की योग्यता तो आ जाती है, किन्तु तीव्रतर कषाय के रहते हुए चारित्रिक योग्यता नहीं आ पाती । धर्म के साथ-साथ चारित्रधर्म की साधना आत्मा के परिपूर्ण विकास के लिए आवश्यक है ।
चारित्रधर्म का स्वरूप
जिस धर्म के द्वारा कर्मों का उपचय दूर हो जाए उसे चारित्र धर्म कहते हैं । व्यवहारचारित्र का लक्षण एक आचार्य ने इस प्रकार किया है
१ इहमेगे उ मन्नंति अपच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चए ||
भता अकता य बंध - मोक्खपइण्णिणो ।
वायावीरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ - उत्तराध्ययन अ० ६ गा० ८-६