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________________ अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २४५ परिणाम, (३) कषायपरिणाम, (४) लेश्यापरिणाम, (५) योगपरिणाम, (६) उपयोगपरिणाम, (७) ज्ञानपरिणाम, (८) दर्शनपरिणाम, (६) चारित्रपरिणाम, और (१०) वेदपरिणाम। इसके पश्चात् गति आदि जिस-जिस के जितनेजितने भेद होते हैं, उतने-उतने परिणाम होते हैं, यह बताया है। अजीवपरिणाम भी दस प्रकार का है--(१) बन्धन परिणाम, (२) गतिपरिणाम, (२) संस्थानपरिणाम, (४) भेदपरिणाम, (५) वर्णपरिणाम, (६) गन्धपरिणाम, (७) रस-परिणाम, (८) स्पर्श-परिणाम, (8) अगुरुलघुपरिणाम और (१०) शब्द परिणाम। ___ इनका विषय स्पष्ट है। तत्पश्चात् अगुरुलघु परिणाम को छोड़कर इनके प्रत्येक के भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है।' . परिणामीनित्यवाद को समझने के लिए एक उदाहरण ले लें-स्वर्णकुण्डल का जब कंगन बनता है, तब कंगनरूपी परिणाम का उत्पादन होता है और कुण्डलरूपी परिणाम का नाश होता है। परन्तु स्वर्ण तो वही का वही रहता है। . परिणामी-नित्यवाद को समझ लेने पर संसार की प्रत्येक वस्तु के वस्तुस्वरूप का यथार्थ दर्शन हो जाता है, यही अस्तिकाय धर्म का स्वरूप है। प्रायः सभी दार्शनिकों ने परिणामी-नित्यवाद को सत्कार्यवाद आदि के रूप में माना है। . इस समस्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैनधर्म अस्तिवादी है। वह वस्तु का मूल्य-निर्णय करता है। किसी भी द्रव्य और अस्तिकाय का अस्तित्व सिर्फ इसलिए नहीं मानता कि उनका वर्णन किसी शास्त्र में आया है, वरन् इस लिए स्वीकार करता है कि सर्वज्ञ ने-अरिहंत ने अपने सर्वब्यापी ज्ञान से देखा है और उसका सर्वांगीण निरूपण किया है, विविध दृष्टियों और अपेक्षाओं से उनका स्वरूप समझाया है । साथ ही यह भी बताया है कि अस्तिकाय वास्तविक होते हुए प्राणीमात्र के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी हैं। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि अस्तिकायों के अभाव में प्राणीमात्र की न कोई क्रिया हो सकतीहै और न कोई प्रवृत्ति ही; यहाँ तक कि उसकी गति, स्थिति और अवस्थिति भी नहीं हो सकती। १ परिणामवाद का विशेष विवेचन जानने के लिए प्रज्ञापनासूत्र का तेरहवां परिणामपद वृत्ति सहित देखिए ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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