________________
२४६ | जैन तत्त्वकलिका : सप्तम कलिका
इनकी उपयोगिता और वास्तविकता के कारण इनको भलीभाँति हृदयंगम करना आवश्यक है । इनको समझे बिना ज्ञान की शुद्धि नहीं हो सकती और न ही उसमें परिपूर्णता आ सकती है; दूसरे शब्दों में कहें तो वह सम्यक्ज्ञान नहीं बन सकता । इसलिए अस्तिकाय धर्म की गणना सम्यक्ज्ञान के अन्तर्गत की गई है ।
कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन होते ही मानव का ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है, किन्तु उस ज्ञान में दृढ़ता, विशदता और गहनता अस्तिकाय धर्म को जानने पर ही आती है । ऐसे व्यक्ति का ज्ञान सुदृढ़ हो जाता है और तब सम्यक्त्व के साथ उसका ज्ञान भी अचल हो जाता है, चलायमान नहीं होता । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान में दृढ़ता आती है, क्योंकि वस्तु का यथार्थ स्वरूप सदैव उसके मन-मस्तिष्क में जमा रहता है । यही अस्तिकायधर्म की उपयोगिता है ।