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२४४ | जैन तत्त्वकलिका : सप्तम कलिका
यह तो अनुभवसिद्ध है कि हम जिस वस्तु को एक बार देखते हैं, वह वस्तु उससे पहले भी थी और बाद में भी रहेगी, किन्तु उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता है। जैन दार्शनिकों का मानना है कि द्रव्य में उत्पाद और व्यय होता है, फिर भी उसकी स्वरूपहानि नहीं होती। द्रव्य के प्रत्येक अंश में प्रतिसमय जो परिवर्तन होता है, वह सर्वथा विलक्षण नहीं होता। परिवर्तन में कुछ सदृशता मिलती है, कुछ असदृशता । पूर्ववर्ती परिणाम और उत्तरवर्ती परिणाम में सादृश्य रहता है, वही द्रव्य है, तथा इन दोनों परिणमनों में जहाँ असादृश्य रहता है, वही पर्याय है। पर्यायरूप में द्रव्य उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। अतः द्रव्यरूप से वस्तु स्थिर रहती है और पर्यायरूप से उत्पन्न-विनष्ट होती है।
इससे फलित यह हुआ कि वस्तु न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य, किन्तु परिणामीनित्य है । परिणाम की व्याख्या पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार की है- ।
परिणामो ह्यन्तिरगमनं, न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्ताद्विदामिष्टः ।। सत्पर्यायेण विनाशः प्रादुर्भावोऽसता च पर्ययतः ।
द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खलु पर्यवनयस्य ॥
जो एक अर्थ से दूसरे अर्थ में चला जाता है-एक वस्तु के दूसरी वस्तु के रूप में परिवर्तित हो जाता है, उसका नाम परिणाम है। यह परिणाम द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से होता है। सर्वथा अवस्थित रहना, या सर्वथा विनष्ट हो जाना परिणाम का स्वरूप नहीं है । वर्तमान पर्याय का नाश और अविद्यमान पर्याय का उत्पाद होता है, वह पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से होने वाला परिणाम है। द्रव्याथिकनय का विषय द्रव्य है। इसलिए उसकी दृष्टि से सत् पर्याय की अपेक्षा जिसका कथञ्चित् रूपान्तर होता है, किन्तु जो सर्वथा नष्ट नहीं होता, वह परिणाम है। पर्यायार्थिकनय का विषय पर्याय है। इसलिए उसकी दृष्टि से जो सत्पर्याय से नष्ट और असत्पर्याय से उत्पन्न होता है, वही परिणाम है । दोनों नयों का समन्वय करने से द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक बन जाता है। इसे ही जैनदर्शन परिणामी-नित्य या कथंचित् नित्य कहते हैं।
__ प्रज्ञापनासूत्र में १३वें परिणामपद में परिणामों का विस्तृत वर्णन है। परिणाम जीव और अजीव दोनों में हैं, इन्हें ही जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम कहते हैं।
जीवपरिणाम दस प्रकार का है-(१) गतिपरिणाम, (२) इन्द्रिय