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________________ २४२ | जैन तत्त्वकलिका : सप्तम कलिका लोकाकाश में षटद्रव्य सदव ही रहते हैं। वे कदापि आकाश द्रव्य से पथक नहीं होते। अतः वे अनादि-अनन्त हैं। आकाशक्षेत्र में जीवद्रव्य अनादिअनन्त है, किन्तु कर्मबद्ध संसारी जीवों का लोकाकाश प्रदेशों के साथ सादिसान्त सम्बन्ध है। सिद्ध आत्माओं के साथ आकाश प्रदेशों का सम्बन्ध सादिअनन्त है। पुद्गलद्रव्य का लोकाकाश के साथ सम्बन्ध अनादि-अनन्त है, किन्तु आकाशप्रदेश के साथ परमाणुपुद्गल का सम्बन्ध सादि-सात्त है। (२) इसी प्रकार धर्मास्तिकाय का सम्बन्ध सर्वजीवों के साथ जानना चाहिए। (३) अभव्यजीवों के साथ पुद्गलद्रव्य का सम्बन्ध अनादि-अनन्त है, क्योंकि अभव्यात्मा कदापि सर्वथा कर्मक्षय नहीं कर सकता, भव्यात्मा कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त करेगा, तब उसके साथ कमपुद्गलों का सम्बन्ध अनादि-सान्त होता है। निश्चयनयानुसार षद्रव्य स्वभाव-परिणाम से परिणत हैं। इस कारण ये परिणामी हैं, और परिणाम सदा नित्य होता है, इसलिए छहों द्रव्य स्वभाव से, अनादि-अनन्त हैं । (४) जीव और पुद्गल द्रव्य का मिलने का परस्पर सम्बन्ध परिणामी है। अभव्य जीव का पारिणामिक भाव अनादिअनन्त है; जबकि भव्यजीव का अनादि-सान्त है । पुद्गल द्रव्य की पारिणामिक सत्ता अनादि-अनन्त है, किन्तु परस्पर मिलना-बिछुड़ना सादि-सान्त है। अतः जीव और पुद्गल के परस्पर सम्बन्ध है, तब तक जीव सक्रिय है, किन्तु जब कर्मों से वह सर्वथा रहित हो जाता है, तब वह अक्रिय बन जाता है। पुद्गलद्रव्य सदेव सक्रिय रहता है। षद्रव्यों के गुण-पर्यायों का साधर्म्य-वैधर्म्य सभी द्रव्यों में अगरुलघु पर्याय समान है, अरूपीगण पुद्गलद्रव्य के सिवाय शेष पांचों द्रव्यों में रहता है । इसी प्रकार जीवद्रव्य के सिवाय, शेष पांचों द्रव्यों में अचेतनभाव रहता है। गतिसहायक गुण, स्थितिसहायक गुण अवगाहनगुण, मिलने-बिछुड़ने का गुण तथा ज्ञानचेतना गुण क्रमशः धर्म, अधर्म आकाश, काल, पुद्गल और जीवद्रव्य के सिवाय अन्य द्रव्यों में नहीं है। किन्तु धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों द्रव्यों के ३-३ गुण और ४-४ पर्याय समान है, काल द्रव्य भी तीन गुणों में समान है। षद्रव्यों के क्रमभावी गुण-पर्याय ____ क्रमभावी गुण को पर्याय कहते हैं। पर्याय का अर्थहै-द्रव्य और गृण की बदलने वाली अवस्था। पर्याय का लक्षण उत्तराध्ययन सूत्र में यों किया गया है यद्यपि घट भिन्न-भिन्न अनन्त परमाणुओं का समूह रूप है, तथापि जब अनन्त परमाणु सम्ह घट के रूप में आजाता है, तब व्यवहार
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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