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अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २३६
(१०) निश्चयनय से छहों द्रव्य अपने-अपने स्वभाव के कर्ता हैं, व्यव हारनय से केवल एक जीव द्रव्य कर्ता है, शेष पांचों द्रव्य अकर्ता हैं ।
(११) छह द्रव्यों में से केवल आकाशद्रव्य सर्वव्यापी है, शेष पांचोंद्रव्य केवल लोकव्यापी हैं ।
सबके
(१२) छहों द्रव्य एक क्षेत्र एकत्व होकर पृथक पृथक हैं । अर्थात् - गुणों का परस्पर द्रव्यों का चार गुणों की दृष्टि से विचार
ठहरे हुए हैं; किन्तु गुण संक्रमण नहीं हो सकता ।
(१) नित्यानित्य -- (१)धर्मास्तिकाय के चार गुण नित्य हैं, पर्याय में धर्मास्तिकाय स्कन्ध नित्य है, उसके देश, प्रदेश और अगुरुलघु गुण अनित्य हैं । (२) अधर्मास्तिकाय के चार गुण तथा पर्याय में अधर्मास्तिकाय स्कन्ध लोकप्रमाण नित्य है, उसके देश, प्रदेश और अगुरुलघु पर्याय अनित्य हैं । (३) आकाशास्तिकाय के चार गुण स्कन्ध लोकालोक प्रमाण नित्य हैं, देश, प्रदेश और अगरुलघु पर्याय अनित्य हैं । (४) काल द्रव्य के चार गुण नित्य और चार पर्याय अनित्य हैं । (५) पुद्गल द्रव्य के चार गुण नित्य और चार पर्याय अनित्य हैं । (६) जीव द्रव्य के चार गुण और पर्याय नित्य हैं, किन्तु अगरु - लघु अनित्य है ।
(२) एक-अनेक – धर्म-अधम द्रव्य का स्कन्ध लोक प्रमाण एक है, किन्तु गुण, पर्याय और प्रदेश अनेक (गुण और पर्याय अनन्त हैं, किन्तु प्रदेश असंख्यात) हैं। आकाश द्रव्य का स्कन्ध लोकालोकप्रमाण एक है, किन्तु गुण, पर्याय और प्रदेश अनेक हैं (गुण और पर्याय अनन्त हैं, तथा आकाश के लोकालोकव्यापी होने से प्रदेश भी अनन्त हैं ।) कालद्रव्य का वत्तनारूप गुण तो एक है, किन्तु गुण, पर्याय और समय अनेक (तीनों अनन्त ) हैं । यथा - भूतकाल के अनन्त समय व्यतीत हो चुके हैं, भविष्यकाल के अनन्त समय व्यतीत होंगे, किन्तु वर्तमान समय एक है परमाणु हैं । फिर एक-एक परमाणु में अनन्त अनन्त प्रकार जीव द्रव्य अनन्त है, परन्तु एक-एक जीव के जीवद्रव्य अनन्तगुण- पर्याय - युक्त है, किन्तु अनन्त जीव जीवत्व एक (समान) हैं । अर्थात् - सर्व जीवों का सत्तारूप गुण एक ही है ।
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पुद्गल द्रव्य के अनन्त
गुण- पर्याय हैं । इसी असंख्यात प्रदेश हैं ।
होने पर भी सब में
(३) सत्-असत् - समस्त द्रव्य स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव की अपेक्षा से - अपने गुण से सत्रूप हैं, किन्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव को अपेक्षा से असत् रूप हैं । स्वव्य-क्षेत्र काल-भाव-स्वद्रव्य कहते हैं— द्रव्य के अपने-अपने मूल गुण को । जैसे- धर्मास्तिकाय का स्वद्रव्य