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२३६ | जैन तत्त्वकलिका : सप्तम कलिका
यह है-छह द्रव्यों के परस्पर उपकार अथवा परस्पर सहयोग निमित्त कारणों की संक्षिप्त झांकी। छह द्रव्यों का गुण-पर्यायनिर्णय
जैनदर्शन ने द्रव्य का लक्षण किया है-द्रव्य वही है, जिसमें गुण और पर्याय हों।' पर्याय के बिना द्रव्य नहीं होता और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होता। . द्रव्य की यह परिभाषा स्वरूपात्मक है। इसका फलितार्थ यह है कि जो गुणों का आश्रय हो, अर्थात्-जिसमें गुण अवश्य रहते हों, उसे द्रव्य कहते हैं। गुण वे कहलाते हैं, जो द्रव्य में सदा रहते हैं, और स्वयं निगुण हों। अर्थात् एक गुण के आश्रित दूसरा गुण न हो, जैसे-जीव के प्रदेशत्व गुण के आश्रित उसका ज्ञान गुण नहीं है। पर्याय भी द्रव्य के आश्रित और निगुण हैं, फिर भी वे उत्पाद-विनाशशील होने से द्रव्य में सदा नहीं रहतीं। परन्तु गुण नित्य होने से वे सदैव द्रव्याश्रित रहते हैं। गुण और पर्याय में यही अन्तर है।
__ कुछ आचार्यों ने गुण के दो भेद किये हैं सहभावी गुण और क्रमभावी गुण । जो द्रव्य के साथ सदैव समानरूप से विद्यमान रहते हैं, वे सहभावी गुण कहलाते हैं, तथा जिनका रूप बदलता रहता है, वे क्रमभावी गुण हैं । उनका दूसरा नाम पर्याय भी है । पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के साथ रहती हैं। इसका फलितार्थ हुआ-द्रव्य में सदा वर्तमान शक्तियाँ ही गुण हैं, जो पर्याय की जनक हैं। द्रव्य में परिणाम-जननशक्ति ही उसका गुण है और गुणजन्य परिणाम पर्याय है । गुण कारण है, पर्याय कार्य है । एकद्रव्य में शक्तिरूप अनन्त गुण होते हैं, जो आश्रयभूत द्रव्य से या परस्पर अविभाज्य हैं। प्रत्येक गणशक्ति के भिन्न-भिन्न समयों में होने वाले त्र कालिक पर्याय अनन्त हैं। द्रव्य और उसकी अंशभूत शक्तियाँ उत्पन्न-विनष्ट न होने से नित्य अर्थात् - अनादि-अनन्त हैं, किन्तु सभी पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न एवं नष्ट होते रहने से व्यक्तिशः अनित्य अर्थात्-सादि-सान्त हैं और प्रवाह की अपेक्षा से अनादिअनन्त है।
१ गुणपर्यायवद्रव्यम् २ (क) 'गुणाणमासओ दव्वं ।'
(ख) 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।' ३ 'गुणः सहभावी धर्मः, पर्यायस्तु क्रमभावी'
-तत्त्वार्थ० ५।३७ - उत्तरा० २८६
-तत्त्वार्थ० ५।४० -प्रमाणनयतत्त्वालोका ० ५।७-८