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अस्तिकायधर्मस्वरूप | २३५
परिमण्डल (वलयाकार), वृत्त ( थाली की तरह गोल), त्र्यंत्र (त्रिकोण), चतुरस्र ( चौकोर ) और आयत (दीर्घ) ।
(६) भेद - विभाजन की क्रिया । इसके ५ प्रकार हैं
(१) औत्कारिक - चीरने - फाड़ने से होने वाला लकड़ी आदि का भेदन, (२) चौणिक - कण-कण के रूप में चूर्ण हो जाना । यथा - गेहूँ आदि का आटा । ( ३ ) खण्ड- - टुकड़े-टुकड़े होना । यथा - पत्थर के टुकड़े । (४) प्रतर - परत निकालना । जैसे - अभ्रक की परतों का अलग-अलग होना । (५) अनुवर - छाल उतरना । जैसे - बांस या ईख की छाल निकालना |
(७) तम - अन्धकार | पुद्गल का एक प्रकार का परिणाम, जो वस्तु को देखने में बाधक होता है, अन्धकार कहलाता है । नैयायिक आदि दार्शनिक तमको अभावात्मक ही मानते हैं, परन्तु जैनदर्शन इसे प्रकाश की तरह स्वतंत्र भावात्मक पुद्गल मानता है । प्रकाश की भांति अन्धकार में भी रूप है ।
(च) छाया-प्रकाश पर आवरण आते ही छाया दृष्टिगोचर होती है । स्थूल पुद्गल में से प्रतिसमय छाया निकलती है । छाया दो प्रकार की होती है - तद्वर्णादिविकार और प्रतिबिम्ब । पुद्गल होने से ही छाया कैमरे की फिल्म पर अंकित हो जाती है ।
(६) आतप - -सूर्य का उष्ण प्रकाश - धूप ।
(१०) उद्योत - चन्द्रमा, चन्द्रमणि, जुगनू आदि का शीतल प्रकाश या चाँदनी उद्योत है ।
इस प्रकार पुद्गल और संसारी जीव का सम्बन्ध अविच्छेद्य है । पुद्गल के बिना वह रह नहीं सकता ।
पुद्गल के परिणामों का यह दिग्दर्शन मात्र है । इस प्रकार पुद्गल असंख्य रूपों में संसारी जीव का उपकारक होता है ।
(६) जीवद्रव्य का उपकार - पारस्परिक उपकार करना जीवों का कार्य है ।' जैसे – एक जीव हिताहित के उपदेश द्वारा दूसरे जीव का उपकार करता है, मालिक वेतन देकर सेवक का उपकार करता है । सेवक मालिक की सेवा करके उपकार करता है, गुरु शिष्य को सदुपदेशानुसार अनुष्ठान करा कर शिष्य पर उपकार करता है और शिष्य अनुकुल प्रवृत्ति द्वारा गुरु का उपकार करता है ।
१ परस्परोपग्रहो जीवानाम्
--तस्वार्थ०५।२१