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अस्तिकाय धर्म-स्वरूप | २२ε
षद्रव्यों के नित्य - ध्रुवगुण
षड् द्रव्यों के नित्य और ध्रुवगुण इस प्रकार हैं- ये षट् द्रव्य है, इनमें से ५ द्रव्य अजीव हैं और एक द्रव्य जीव चेतना लक्षण वाला है ।
धर्मास्तिकाय के ४ गुण हैं - (१) अरूपी, (२) अचेतन, (३) अक्रिय, और (४) गति सहायक लक्षण ।
अधर्मास्तिकाय के ४ गुण हैं - (१) अरूपी, (२) अचेतन, (३) अक्रिय, और (४) स्थिति सहायक लक्षण ।
आकाशास्तिकाय के ४ गुण - (१) अरूपी, (२) अचेतन, (३) अक्रिय, और (४) अवगाहन गुण ।
कालद्रव्य के ४ गुण - (१) अरूपी, (२) अचेतन, (३) अक्रिय और (४) नव-पुराणादि वर्तना लक्षण ।
पुद्गलास्तिकाय के ४ गुण – (१) रूपी, (२) अचेतन, (३) सक्रिय, और संयोग-वियोग का स्वभाव ।
जीवास्तिकाय के ४ गुण – (१) अनन्त ज्ञान, (२) अनन्त दर्शन, (३) अनन्त सुख, और (४) अनन्त वीर्य । '
शंका-समाधान - आकाश को निष्क्रिय बताया गया है, क्योंकि वह कुछ भी क्रिया नहीं करता है फिर उसमें विविध प्रकार की क्रियाएँ क्यों दिखाई देती हैं ? कई दर्शनिक आकाश से शब्द की उत्पत्ति मानते हैं, ऐसा क्यों ?
इसका समाधान यह है कि आकाश में जो विविध क्रियाएँ होती दिखाई देती हैं, वे जीव और पुद्गल के क्रिया स्वभाव के कारण हैं । आकाश तो उन्हें अवकाश (क्षेत्र) देने के सिवाय और कुछ नहीं करता । जैसे - घर में उठने-बैठने, चलने-फिरने, खाने-पीने आदि की अनेक प्रकार की क्रियाएँ होती दिखाई देती हैं, किन्तु वे क्रियाएँ घर नहीं करता । वे तो घर में रहने वाले मनुष्य ही करते हैं, घर तो केवल आश्रय देता है, यही बात आकाश के विषय में समझनी चाहिए ।
शब्द आकाश से नहीं, पुद्गल (मेघ, विद्युत आदि) से उत्पन्न होता है । आकाश तो उसका क्षेत्रमात्र है ।
छह द्रव्यों का उपकारत्व निर्णय
वैसे तो प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित है, किन्तु छहों द्रव्य परस्पर एक दूसरे के उपकारी और सहयोगी बनते हैं । जैन दर्शन के अनु
१. आगम सार ग्रन्थ से 1