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- २२८ | जैन तत्वकलिका - सप्तम कलिका
- प्राण = १ स्तोक स्तोक = १ लव
.७७ लव =
२
२
पक्ष = १ मास
मास = १ ऋतु
ऋतु = १ अयन
अयन = १ वर्ष
वर्ष = १ युग
७० लाख करोड़, ५६ हजार करोड़ वर्ष
= १ पूर्व असंख्य वर्ष = १ पल्योपम
३
लव = १ घड़ी (२४ मिनट) २
५
(२ घड़ी ( ४८ मिनट) या १ मुहूर्त (,, ,,). या ३७७३ प्राण 'या १६७७७२१६
आवलिका १० क्रोड़ाक्रोड़पल्योपम = १ सागरोपम या ६५५३६ क्षुल्लकभव २० क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम = १ कालचक्र ३० मुहूर्त = एक अहोरात्र (दिन-रात ) उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी अनन्तकाल चक्र = १ पुंद्गलपरावर्तन
१५ दिन = १ पक्ष
भाव से - काल द्रव्य अरूपी - अमूर्त है । काल मूर्त द्रव्य नहीं है । • उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं होता । वह सिर्फ एक प्रदेशरूप होने तथा काल के दो समय इकट्ठे न हो सकने से वह 'अस्तिकाय' नहीं
कहलाता ।
गुण से -- काल वर्त्तनालक्षण है । नवीन प्राचीन, ज्येष्ठ-कनिष्ठ, शीघ्रविलम्बित आदि व्यवहार काल के कारण प्रवर्तित होता है । आयुष्य का मान काल से निकलता है । बीज से वृक्षोत्पत्ति, बालक से युवक अथवा वृद्ध की परिणति भी काल की सहायता से संभव है । इसी प्रकार हलन चलन, खान-पान, नहाना-धोना, व्यापार-धंधा आदि सब काल की सहायता से संभव है । निष्कर्ष यह है कि काल की सहायता न हो तो कोई भी क्रिया असम्भव है ।
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(५) जीवास्तिकाय - द्रव्य से — जीव द्रव्य अनन्त है, क्षेत्र से - चतुर्दश रज्जु परिमाण लोकवर्ती, काल से - अनादि- अनन्त है, भाव से - अरूपी तथा गुण से - चेतना लक्षण वाला है ।
(६) पुद्गलास्तिकाय - द्रव्य से - पुद्गलास्तिकाय अनन्त है, क्षेत्र से - लोकपरिमाण, काल से - अनादि-अनन्त भाव से -- रूपी है और गुण सेपूरण- गलन- सड़न - विध्वंसन रूप होना पुद्गलों का स्वभाव है ।
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यद्यपि परमाणु रूप पुद्गल इन्द्रियग्राह्य नहीं होता, इसका कारण उसकी अत्यधिक सूक्ष्मता है । फिर भी वह अमूर्त नहीं, मूर्त है - रूपी है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष से वह जाना देखा जाता है ।