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________________ अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २२३ होकर भटकने लगेंगे, फिर उन्हें कहाँ तो मोक्ष-मार्ग का उपदेश दिया जाएगा? कहाँ वे साधना करेंगे? कहाँ वे साधन जुटाएंगे? इस प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य को सर्वव्यापी मानने से अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। अतः इन्हें लोक पर्यन्त मानना ही उचित है।' (३) आकाशास्तिकाय-द्रव्य से-आकाश एक अनन्त प्रदेशात्मक और अखण्ड द्रव्य है । क्षेत्र से-लोकालोक प्रमाण है। आकाश अनन्त विस्तार वाला है। अर्थात्-लोक में धर्म-अधर्म द्रव्य के तुल्य उसके असंख्य प्रदेश हैं और अलोक में अनन्त प्रदेश हैं । काल की अपेक्षा से-आकाश अनादि अनन्त है । भाव की दृष्टि से-आकाश अरूपी-अमूर्त है । गुण की अपेक्षा से- उसका अवकाश देने का स्वभाव है। जैसे-दूध में शक्कर को अवकाश मिल जाता है। शंका-समाधान-प्रश्न होता है कि आकाश सर्वत्र एक रूप और अखण्ड है, उसके कोई भाग या टुकड़े नहीं हैं, तो घटाकाश, पटाकाश, मठाकाश आदि क्यों कहे जाते हैं ? इसका समाधान यह है कि ये सब औपचारिक प्रयोग हैं । अन्य वस्तुओं की अपेक्षा से उसे ऐसा कहते हैं, इससे आकाश की एक-रूपता और अखण्डता को कोई आंच नहीं आती। आकाश के जितने भाग में घट, पट या मठ व्याप्त होकर रहता है उसका नाम क्रमशः घटाकाश, पटाकाश या मठाकाश है। कहा जाता है कि आकाश सर्वव्यापी है, इस पर प्रश्न होता है 'ऊपर आकाश और नीचे धरती' ऐसी लोकोक्ति प्रसिद्ध है, सामान्य लोगों का अनुभव भी ऐसा है, इस दृष्टि से आकाश को तो ऊपर ही व्याप्त कहना चाहिए, वह नीचे व्याप्त कैसे माना जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि हमारे ऊपर बहुत-सा अवकाश रहा हुआ दिखाई देता है, इसलिए हम मान लेते हैं और भाषा प्रयोग करते हैं कि आकाश सिर्फ ऊपर हो है, किन्तु आकाश का विस्तार सिर्फ ऊर्वदिशा में ही नहीं है। वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, नैऋत्य, वायव्य और आग्नेय इन दिशा-विदिशाओं में तथा अधोदिशा में भी व्याप्त है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित-स्थित है। इसका प्रमाण यह १. आगासं अवगासं गमणट्रिदिकारणेहिं दे दि जदि । उड्ढे गदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्थ ।। -पंचास्तिकाय ६२
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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