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________________ २२२ | जैन तत्त्वकलिका - सप्तम कलिका समस्त स्पन्दनात्मक प्रवृत्तियों में धर्मद्रव्य सहायक है । गतिक्रिया में सहायता देने के स्वभाव से कदापि च्युत न होना धर्म का नित्यत्व है । जैसे - मत्स्य को तैरने में जल सहायक होता है । 1 - (२) अधर्मास्तिकाय - वह भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से धर्मास्तिकाय के ही समान है । गुण से – धर्मद्रव्य जीवों और पुद्गलों की गति - क्रिया में सहायक है, वैसे ही अधर्मद्रव्य उनकी स्थितिक्रिया में सहायक है । जैसे पथिक को वृक्ष की छाया सहायक होती है । शंका : समाधान - धर्म और अधर्म द्रव्य को आकाश के एक भाग (लोकाकाश) में ही व्याप्त न मानकर समग्र आकाश में व्याप्त माना जाएगा तो जहाँ-जहाँ आकाश होगा, बहाँ-वहाँ धर्म-अधर्म द्रव्य होंगे, ऐसी स्थिति में अलोक का लोप हो जाएगा और लोक की सीमा का अन्त नहीं आएगा, उसमें जो एक प्रकार की व्यवस्था दिखाई देती है, वह दिखाई न आकाश क्षेत्र में रुके बिना संचरण फिर उनका मिलना भी लगभग देगी । फिर तो जीव और पुद्गल अनन्त करेंगे तो ऐसे तितर-बितर हो जाएँगे कि असम्भव ही जाएगा । इसके अतिरिक्त लोक के अग्रभाग में जो सिद्धि-स्थान है, उसका भी लोप हो जाएगा । कर्मबन्धन से मुक्त होते ही सिद्धजीव ऊर्ध्वगति करके लोक के अग्रभाग (अन्त) में पहुँच जाता है, किन्तु लोक का कोई अन्त (सीमा) नहीं होगा तो कर्ममुक्त सिद्ध जीव को ऊर्ध्वगति जारी रखनी पड़ेगी, उसका कभी अन्त नहीं आएगा, क्योंकि वह अनन्त लोक में गति कर रहा होगा । ऐसी स्थिति में अब तक जो जीव मुक्त-सिद्ध हुए हैं, वे सब भी गतिमान ही रहेंगे, क्योंकि फिर तो सिद्धि स्थान जैसा कोई स्थान ही न रहेगा । सिद्धों की यह स्थिति देखकर कौन सुज्ञ सिद्धि के लिए पुरुषार्थ करेगा ? फिर तो सिद्धि का भी लोप हो जाएगा । जब सीमित लोकाकाश - जैसा कुछ नहीं होगा तो जीव अनन्त आकाश में कहीं के कहीं, तितर-बितर १. धम्मत्थिकायमरसं अण्णमगंधं असमफासं । लोगोगाढं पुढं पिहुलमसंखादिय पदेसं ॥ - पंचास्तिकाय ८३ २. जह हवति धम्मदव्व तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं । fofa fafरयाजुत्ता ( जीवपोग्गलाण) कारणभूदं तु पुढवीव ॥ - पंचास्तिकाय ८६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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