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अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २२१
जो विशेषताएँ चेतनावान् जीव में होती हैं, वे अजीव में नहीं होती ये ही विशेषताएँ जीव द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करती हैं ।
अतः जीव द्रव्य चेतन स्वरूप है, जानने और देखने रूप उपयोग वाला है, प्रभु ( उत्थान-पतन के लिए स्वयं उत्तरदायी) है, कर्ता- भोक्ता है, स्वशरीर प्रमाण है । यद्यपि वह मूर्त्त नहीं है, तथापि कर्मों से संयुक्त है । ' द्रव्यों का मूल्य - निर्णय
अब छह द्रव्यों के मूल्य-निर्णय के सम्बन्ध में विचार कर लेना उचित है । मूल्यनिर्णय में यहाँ तीन बातों का विचार करना है(१) स्वरूप निर्णय,
(२) गुण - धर्म - उपकारकत्वनिर्णय और
(३) वस्तुत्वनिर्णय |
स्वरूपनिर्णय में प्रत्येक द्रव्य के द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव और गुण की दृष्टि से विभिन्न पहलुओं से विचार करना है ।
(१) धर्मास्तिकाय - द्रव्य से - संख्या की दृष्टि से धर्मास्तिकाय एक है, अर्थात् - असंख्य प्रदेशों का एक अविभाज्य पिण्ड है । धर्मद्रव्य पूरा एक द्रव्य
वह जीव आदि के समान पृथक्-पृथक् रूप से नहीं रहता, किन्तु अखण्ड द्रव्यरूप में अवस्थित है । इसका अर्थ है - उसमें जितने असंख्यात प्रदेश हैं, वे प्रदेश कम या ज्यादा नहीं होते, सदैव उतने असंख्यात ही बने रहते हैं । क्षेत्र से - अवगाहन की दृष्टि से वह समग्र लोकव्यापी है । लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं, जहाँ धर्म द्रव्य न हो । सम्पूर्ण लोकव्यापी होने से उसे अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं रहती ।
काल से - काल की अपेक्षा से वह अनादि-अनन्त है, शाश्वत है * । सदा था, सदा है और सदा रहेगा । वह न तो कभी उत्पन्न हुआ और न ही कभी नष्ट होगा ।
भाव से — अवस्था की दृष्टि से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित होने से वह अरूपी है, अमूर्त है, निराकार है ।
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गुण से स्वभाव से वह पदार्थों (जीवों और पुद्गलों) की गति - क्रिया में अपेक्षित सहायता करता है । यहाँ तक कि जीवों के गमनागमन, हलन चलन, बैठना - बोलना, उन्मेष, तथा मानसिक - वचिक - कायिक आदि
१. जीवोत्ति हवइ चेदा उवओग विसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता या देहमत्तो, ण हि मुत्तो, कम्मसंजुत्तो ॥ २. कालओ... जाव णिच्चे
- पंचास्तिकाय अवष्णे अगंधे अरसे अफासे ।' - भगवती श० २ उ० १०