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२२० | जैन तस्वकलिका—सप्तम कलिका
रूप एक परमाणु है और सबसे बड़ा रूप समग्र विश्वव्यापी अचित महांस्कन्ध' है । इसीलिए पुद्गल को पूरण- गलनधर्मी कहा गया है ।
(६) जीवास्तिकाय - जीव ( आत्मा ) के अस्तित्व के सम्बन्ध में हम पूर्व कलिका में आत्मवाद के सन्दर्भ में पर्याप्त प्रकाश डाल चुके हैं । यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि चेतना लक्षण वाला जीव के अतिरिक्त अन्य कोई भी द्रव्य नहीं । छहों द्रव्यों में जीव के अतिरिक्त सभी द्रव्य अजीव हैं । विश्व में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं, जिसमें चेतना का सद्भाव न हो । ज्ञान के आवरण की न्यूनाधिकता के अनुसार उसका विकास कम या अधिक होता है । अतः जीव और अजीव का भेद बताते हुए कहा हैकेवलज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो सभी जीवों में अनावृत रहता ही है । यदि वह भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव हो जाएगा, किन्तु ऐसा कभी होता नहीं ।
व्यावहारिक दृष्टि से सजातीय जन्म, वृद्धि, सजातीय उत्पादन, क्षतसंरोहण और अनियमित तिर्यग्गति, ये जीव के लक्षण हैं, जो अजीव (जड़) नहीं पाए जाते । एक मशीन मानव द्वारा उत्पन्न या निर्मित की जाती है, वह स्वयं को स्वयं उत्पन्न ( जन्मग्रहण) नहीं कर सकती; वह अपना आहार दूसरे के द्वारा ग्रहण कर सकती है, पर उस आहार के रस से अपनी काया बढ़ा नहीं सकती । यद्यपि स्वयं को नियंत्रित करने वाली (Automatic ) मशीनें भी हैं, टारपिडों में स्वयंचालक शक्ति भी है तथापि वे यंत्र न तो सजातीय यंत्र से पैदा होते हैं और न किसी सजातीय यंत्र को पैदा करते हैं । ऐसा कोई भी यंत्र नहीं है, जो स्वयं की मरम्मत स्वयं कर सके, स्वयं को स्वयं ठीक (स्वस्थ) कर सके या मानवकृत नियमन के अभाव में स्वेच्छा से इधर-उधर जा सके ।
एक ट्र ेन स्टार्ट करने पर मनों टनों वजन लेकर पटरी पर वायुवेग से दौड़ सकती है, परन्तु न तो वह नन्ही-सी चींटी के समान स्वेच्छा से कहीं रुक सकती है और न इधर-उधर मुड़ सकती है, क्योंकि चींटी में चेतना है, ट्रेन में चेतना का अभाव है । यंत्र में चेतना शक्ति नहीं, उसका नियामक चेतनावान् प्राणी है । यही चेतन (जीव ) और अचेतन ( अजीव पुद्गल या जड़) में अन्तर है |
१. केवली समुद्घात के पाँचवें समय में आत्मा से छूटे हुए जो पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त होते हैं, उन्हें 'अचित्त महास्कन्ध' कहते हैं ।