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________________ अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २१९ को नैश्चयिक काल मानकर शाश्वत माना गया है। द्रव्यों में नवीन-प्राचीन आदि-आदि यर्यायों का समय, घड़ी, मुहूर्त आदिरूप स्थिति को व्यवहार काल की संज्ञा दी गई है, जो कि द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली स्थिति है। किन्तु जो द्रव्य की पर्याय है, वह व्यावहारिक काल नहीं है। विज्ञान की दष्टि में आकाश और काल कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं, किन्तु द्रव्य या पदार्थ के धर्ममात्र हैं। वैज्ञानिकों का कथन है कि ज्यों-ज्यों काल बीतता है, त्यों-त्यों वह लम्बा होता जाता है, काल आकाश सापेक्ष है । काल की लम्बाई के साथ-साथ आकाश (विश्व के आयतन) का भी प्रसार हो रहा है।' इस प्रकार काल और आकाश दोनों वस्तुधर्म हैं। (५) पुद्गलास्तिकाय-विज्ञान ने जिसे मैटर (Matter) और इनर्जी (Energy) कहा है, न्याय-वैशेषिक दर्शन जिसे भौतिक तत्त्व कहते हैं, उसे ही जैनदर्शन ने पुद्गल की संज्ञा प्रदान दी। बौद्धदर्शन में पुद्गल शब्द आलयविज्ञान (चेतनासन्तति) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यद्यपि जैनागम में अभेदोपचार से पुद्गल युक्त (पुद्गली) को पुद्गल कहा है. तथापि मुख्यतया पुदगल का अर्थ-मूर्त द्रव्य है । अतः पूदगलों के अस्तित्व के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। ___इसके अतिरिक्त पुद्गल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का कारण यह है कि जीव, धर्म, अधर्म और आकाश, ये चार द्रव्य अविभागी हैं। क्योंकि धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीनों एक और अखण्ड होने से इनके प्रदेशों में ह्रास एवं वद्धि की क्रिया सम्भव नहीं, काल का प्रत्येक प्रदेश अथवा परमाणु स्वतन्त्र है, अतः उसमें भी ह्रास-वृद्धि असम्भव है । ऐसी ही स्थिति जीव की है । उसका कोई भी भाग अलग होकर पुनः मिलता नहीं। वह अखण्ड असंख्य प्रदेशी वस्तु के रूप में जैसा होता है, वैसा ही रहता है। अतः इनमें संयोग और विभाग नहीं होता । संयोजित-वियोजित होना पुद्गल की ही विशेषता है। पूर्वोक्त चारों द्रव्यों के अवयवों की परमाणु द्वारा कल्पना की जाती है कि मान लो, यदि हम इन चारों द्रव्यों के परमाणु जितने खण्ड-खण्ड करें तो जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य के असंख्य और आकाश के अनन्त खण्ड होंगे। किन्तु पुद्गल वास्तव में अखण्ड द्रव्य नहीं है । उसका सबसे छोटा १. माख की कहानी पृ० १२२५ का संक्षेप २. जीवे णं भंते ! किं पोग्गली, पोग्गले ? गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि । -भगवती ८।४६६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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