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२१८ | जैन तत्त्व कलिका-सप्तम कलिका
पूर्वोक्त दोनों मत विरोधी नहीं, अपितु परस्पर सापेक्ष हैं । निश्चयदष्टि से तो काल जीव-अजीव का पर्याय रूप मानने से सभी कार्य एवं व्यवहार सम्पन्न हो जाते हैं। व्यवहारदष्टि से उसे एक स्वतन्त्र पृथक् द्रव्य माना है, और जीवाजीवात्मक भी कहा है, क्योंकि काल का व्यवहार पदार्थों की व्यवस्था एवं स्थिति आदि के लिए होता है।
____समय, आवलिका रूप काल जीव-अजीव से पृथक् नहीं है, उन्हीं की पर्याय है। 'उपकारकं द्रव्यम्' इस सिद्धान्त-वाक्य के अनुसार वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं। इसी उपकारकता के कारण वह द्रव्य माना जाता है।
न्याय और वैशेषिक दर्शन में काल को एक नित्य और सम्पूर्ण कार्यों का निमित्त माना गया है। इन दोनों दर्शनों में क्रमशः परत्व-अपरत्व आदि तथा पूर्व-अपर, युगपत्-अयुगपत्, चिर-क्षिप्र को काल के लिंग माना गया है। . सांख्य, योग, वेदान्त आदि दर्शनों में काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं माना है। कालतत्त्वविषयक दो मान्यताएँ जैसे जैनदर्शन में हैं वैसे ही वैदिक दर्शनों में भी स्वतन्त्र कालवादी और अस्वतन्त्र कालवादी-दोनों मान्यताएँ हैं। बौद्धदर्शन में काल को स्वभावसिद्ध पदार्थ न मानकर केवल प्रज्ञप्ति मात्र-व्यवहार के लिए कल्पित माना है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार काल अणुरूप है। कालाणओं की संख्या लोकाकाश के तुल्य है। आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु अवस्थित है । 'एक-एक समय में काल के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नामक अर्थ सदैव होते हैं । यही कालाणु के अस्तित्व का हेतु है ।' कालाणु
१. (क) प्रज्ञापना पद १, (ख) उत्तरा० २८।१०, (ग) भगवती २।१०।१२०,
१३।४।४८२, २५।४ २. स्थानांग, सूत्र ६५ ३. (क) न्यायकारिका ४६ : परापरत्वधीहेतुः क्षणादिः स्यादुपाधितः ।
(ख) वैशेषिक सूत्र २।२।६ ४. लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ठिया हु एक्केक्का ।
रयणाणं रासिमिव ते कालाणु असंखदव्वाणि ।। -सर्वार्थसिद्धि पृ० १६१ ५. एगम्हि संति समये, संभवठिइणास सण्णिदा अट्ठा । समयस्स सव्वकाल एस हि कालाणुसब्भावो॥
-प्रवचनसारोद्धार गा० १४३