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________________ अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २१७ आकाश के कारण ही समझ में आता है । 'क' से 'ख' आठ फुट की दूरी पर खड़ा है, ऐसा कहने में आकाश निमित्तरूप है । यदि बीच में आकाश -- अवकाश न हो तो उनका अन्तर हम नहीं कह सकते । अन्तर के कारण अतिनिकट, निकट, दूर, सुदूर का तथा लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई का व्यवहार सम्भव है । दिशाओं- विदिशाओं का ज्ञान भी आकाश से ही हो सकता है । लोक के तीन भाग - ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक भी आकाश के आधार से ही किये गये हैं । (४) कालद्रव्य - काल के सम्बन्ध में जैन साहित्य का मन्थन करने पर अभिमत प्रतीत होते हैं (१) काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं हैं, वह जीव और अजीव की पर्याय है । जो जिस द्रव्य की पर्याय है, वह उस द्रव्य के अन्तर्गत ही है । जीव की पर्याय जीव है, अजीव की पर्याय अजीव । इस दृष्टि से जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय- परिणमन ही उपचार से काल कहा जाता है । अतः जीव और अजीव को 'कालद्रव्य' मानना चाहिए, वह पृथक् तत्त्व नहीं है । (२) द्वितीय मत के अनुसार काल एक सर्वथा स्वतंत्र द्रव्य है । उसका स्पष्ट आघोष है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वतंत्र द्रव्य हैं, उसी प्रकार काल भी है । अतः काल को जीव आदि की पर्याय प्रवाह रूप न मानकर, पृथक् तत्त्व मानना चाहिए । श्वेताम्बर आगम साहित्य में तथा ग्रन्थों में काल सम्बन्धी इन दोनों मान्यताओं का उल्लेख मिलता है ।" दिगम्बर परम्परा के साहित्य में केवल द्वितीय पक्ष को ही माना है । " प्रथम मंत का फलितार्थ यह है कि जीव - अजीव दोनों अपने-अपने रूप में स्वतः ही परिणत होते हैं । अतः जीव अजीव के पर्याय पुरंज को ही काल कहना चाहिए | काल अपने आप में कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है । द्वितीय मत का फलितार्थ यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं । उनकी गति और स्थिति में सहायक रूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, वैसे ही जीव और अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्त कारणरूप काल को स्वतंव द्रव्य मानना चाहिए । १. ( क ) भगवती २५|४| ७३४, (ख) उत्तरा० २८।७-८, (ग) जीवाभिगम, (घ) प्रज्ञापना पद १३ (ङ) तत्वार्थ० भाष्य - व्याख्या सिद्धसेनगणितकृत ५।३८-३९, (च) विशेषावश्यकभाष्य ३६, २०६८ २. तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवात्तिक ५।३८ - ३६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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