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२१६ | जैन तत्त्वकलिका–सप्तम कलिका अस्तित्व न तो ज्ञाता पर निर्भर हैं, और न अन्य भौतिक पदार्थों पर जिनको वे आश्रय देते हैं या जिनसे सम्बन्धित हैं। सभी वस्तुएँ आकाश में स्थान की अपेक्षा से रही हुई हैं।
___ इसका तात्पर्य यह है कि आकाश एक अगतिशील (स्थिर) आधार के रूप में है तथा उसमें पृथ्वी और अन्य आकाशीय पिण्ड रहे हुए हैं। वह आकाश असीम विस्तार वाला है, चाहे वह द्रष्टा द्वारा जाना-देखा जाए या नहीं । चाहे वह किसी पदार्थ द्वारा अवगाहित हो या नहीं। इनकी अपेक्षा बिना वह स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में है और सदा से अस्तित्व में था तथा सदा अस्तित्व में रहेगा। आकाश एक और अखण्ड तत्त्व है । भिन्न-भिन्न पदार्थों द्वारा अवगाहित होने पर भी उसके गुणों में परिवर्तन नहीं आता।'
जैनदर्शन के अनुसार आकाश स्वतन्त्र द्रव्य है। दिक् उसी का काल्पनिक विभाग है। आकाश कोई ठोस द्रव्य नहीं, अपितू खाली स्थान है, वह सर्वव्यापी, अमूर्त और अनन्त प्रदेशी है । अखण्ड होते हुए भी आकाश के दो विभाग किये गये हैं-लोकाकाश और अलोकाकाश । जैसे-जल का आश्रय स्थान जलाशय कहलाता है, वसे ही समस्त द्रव्यों का आश्रय स्थान लोकाकाश है।
सहज जिज्ञासा हो सकती है कि आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है, फिर उसे दो भागों में विभक्त क्यों किया गया है? .. समाधान है कि आकाश का जो विभाजन लोकाकाश-अलोकाकाश के रूप में किया गया है, वह आकाश की अपेक्षा से नहीं, किन्तु धर्म-अधर्म द्रव्य आदि के आधार से किया गया है । वस्तुतः आकाश एक और अखण्ड द्रव्य है, परन्तु आकाश के जिस खण्ड में धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और काल पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है; और जिस खण्ड में उनका अभाव है, वह अलोकाकाश है । वैसे आकाश लोक और अलोक सभी स्थानों पर एकसा है, उसमें किंचित् भी अन्तर नहीं है।
आकाशद्रव्य के अस्तित्व को मानने का एक कारण यह भी है कि दो वस्तुओं अथवा बिन्दुओं के बीच रहा हुआ अन्तर (Distance) हमें १. (क) देखें-मोटे और केजोरि द्वारा 'प्रिसिपिया मैथेमेटिका' का अंग्रेजी अनुवाद,
पृ० ६. (ख) देखें-'ह्वीट्टाकर के द्वारा न्यूटन के आकाश-सम्बन्धी विचारों की व्याख्या
-"फ्रोम युक्लिड टु एडिंग्टन'. पृ० १३०. २. उत्तराध्ययन ३६।२ ३. ' आऽऽकाशादेकद्रव्याणि निष्क्रियाणि च ।
-तत्वार्थ० ५।४