________________
अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २१५ माध्यम से, कैसे गति करती हैं ? तथा सूर्य, ग्रह और तारों के बीच में जो विराट शून्य प्रदेश फैला हुआ है, उसमें होकर कैसे गुजरती है ? इसके अतिरिक्त ये किरणे लाखों-करोड़ों मील की दूरी से आती हैं, फिर भी इनकी गति समान होती है, न एक की शीघ्र न दूसरी की मन्द । अतः इन किरणों के आने का कोई माध्यम होना चाहिए । कई अनुसन्धानों के बाद वैज्ञानिकों को यह स्वीकार पड़ा कि गति में सहायक एक द्रव्य है, जिसके माध्यम से गति होती है । उस द्रव्य का नाम उन्होंने ईथर (Ether) रखा। बहुत चर्चाविचारणा के बाद 'ईथर' के स्वरूप का भी निश्चय किया गया कि 'ईथर अपरमाणविक वस्तु है, सर्वत्र व्याप्त है और वस्तु के गतिमान होने में सहायता करता है।'
सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन ने लोक के परिमित होने का कारण यह बताया कि लोक के बाहर वह शक्ति या द्रव्य नहीं जा सकता, जो गति में सहायक होता है। सर्वप्रथम न्यूटन ने गतितत्त्व (Medium of Motion) को माना । अतः भौतिक वैज्ञानिकों को गतिसहायक तत्त्व-ईथर को एक स्वतंत्र द्रव्य मानना पड़ा।
जैन दर्शन में गतिसहायक तत्त्व को धर्मद्रव्य नाम दिया गया है । गति और स्थिति में असाधारण रूप से सहायक तत्त्वों को हम अभिसमयानुसार धन ईथर (Positive Ether) और ऋण ईथर (Negative Ether) मान लें तो धर्मास्तिकाय को 'धन ईथर' और अधर्मास्तिकाय को 'ऋण ईथर' कह सकते हैं।
(३) आकाशास्तिकाय-आकाश द्रव्य का अस्तित्व अधिकांश दर्शन और विज्ञान निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं। कई दार्शनिक आकाश और दिक् को पृथक् द्रव्य मानते हैं, और कुछ दिक् को आकाश से पृथक नहीं मानते । न्याय और वैशेषिक दर्शन आकाश को शब्दगुण वाला मानते हैं । अभिधम्म के अनुसार आकाश एक धातु है । आकाश धातु का काय रूप परिच्छेद (ऊर्ध्व-अधः-तिर्यक रूपों का विभाग) करना है। न्यूटन के अनुसार आकाश और काल वस्तुसापेक्ष वास्तविक स्वतन्त्र तत्त्व हैं। इनका
१. Hollywood R. & T. : Instruction Lesson No. 2-'What is
Ether ?' २. (क) शब्दगुणकमाकाशम् ।
-तर्कसंग्रह (ख) छिद्रमाकाश धात्वाख्यं अलोकतमसी किल -अभिधर्म कोश १।२८