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२१२ | जैन तत्त्वकलिका-सप्तम कलिका
जैसे-शब्द पुद्गलात्मक है, क्योंकि जिस समय पुद्गलद्रव्य के पर• माण स्कन्धरूप में परिणत होते हैं और तब उनमें परस्पर संघर्षण होने के कारण ध्वनि उत्पन्न होती है। वह ध्वनि या शब्द तीन प्रकार के हैंजीव शब्द (जिस पुद्गलद्रव्य को लेकर जीव भाषण करता है), अजीव शब्द (परस्पर संघर्षणोत्पन्न शब्द) और मिश्रित शब्द (जीव और अजीव के मिलने से उत्पन्न शब्द, जैसे-वीणावादन) । अन्धकार भी पुद्गलद्रव्य का लक्षण है, वह अभावरूप पदार्थ नहीं है। वह प्रकाशरूप भी है। रत्नादि का उद्योत, चन्द्रादि की प्रभा (प्रकाश), वृक्षादि की छाया, सूर्य का आतप, ये सब पुद्गलद्रव्य के लक्षण हैं। इसी प्रकार पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श, ये सब पुद्गलास्तिकाय के लक्षण हैं।' द्रव्यों का अस्तित्व-निर्णय
(१-२) धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य-इन दोनों को मानने के लिए हमारे सामने दो युक्तियाँ हैं-(१) गति-स्थिति में निमित्त कारण और (२) लोक और अलोक के विभाजन के हेतु । प्रत्येक कार्य में निमित्त और. उपादान दोनों कारणों की आवश्यकता रहती है । विश्व में जीव और पुद्गल दो द्रव्य गतिशील भी हैं और स्थितिशील भी हैं। गति एवं स्थिति के उपादान कारण तो दोनों स्वयं हैं । निमित्त कारण किन्हें माने जाएँ । इस प्रश्न के समाधान के लिए हमें ऐसे द्रव्यों की ओर दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी, जो गति और स्थिति में सहायक हो सकें । वायु स्वयं गतिशील है, पृथ्वी, जल आदि समग्र लोक में व्याप्त नहीं है। जबकि गति और स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है । इसलिए हमें ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य या स्थितिशून्य हों और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हों किन्तु अलोक में न हों। अतः हमें इस युक्ति से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व मानने को बाध्य होना पड़ता है।
हम जीवित प्राणियों को हलन-चलन करते या दौड़ते या एक जगह बैठते, खड़े रहते, अनेक प्रकार की क्रियाएँ करते हैं । इसी तरह पौद्गलिक पदार्थों को भी विविध प्रकार की गति करते देखते हैं। चाबी दी हई हो तो घड़ी चलती रहती है, जोरदार धक्का लगाने पर वस्तु उछलती है, बन्दूक
१. (क) पूरणात् गलनाच्च पुद्गलाः। -तत्त्वार्थ सिद्धसेनीया टीका (ख) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ।
-तत्त्वार्थ० ५/२३ (ग) सबंधयार-उज्जोओ, पहा छायातवे इ वा। ::.... वण्णगंधरसाफासा पुग्गलाणं तु लवखणं ।। -उत्तराध्ययन २८/१२