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अस्तिकायधर्म - स्वरूप | २११
लक्षण दो प्रकार के हैं— आत्मभूत और अनात्मभूत । जैसे - अग्नि का उष्णत्व आत्मभूत लक्षण है, जबकि दण्ड पुरुष का अनात्मभूत लक्षण है । अतएव प्रकारान्तर से शास्त्र में जीव का एक और लक्षण इस प्रकार दिया गया है - जिसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग हो, यह जीव का आत्मभूत लक्षण है । क्योंकि जीव ज्ञान, दर्शन, चारित्र (काया से अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति अथवा निश्चय नय से स्वरूपरमणता) तथा द्वादशविध तप से युक्त है । क्षयोपशमभाव से उत्पन्न आत्मिक सामर्थ्य (वीर्य) एवं ज्ञानादि में एकाग्रतारूप उपयोग से युक्त है; क्योंकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य, ये चार भावप्राण तो प्रत्येक जीव में होते ही हैं।"
जीव का अनात्मभूत लक्षण व्यवहार दृष्टि से दिया जा सकता है - जो दस प्राणों (पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास) से जीता है, वह जीव है । क्योंकि ये प्राण शुद्ध एवं मुक्त जीव के नहीं होते, सिर्फ संसारी जीव के ही होते हैं, इसलिए यह लक्षण अनात्मभूत है ।
(६) पुद्गलास्तिकाय - जो द्रव्य पूरण और गलन अर्थात् - इकट्ठा और अलग हो, जुड़े और टूटे-फूटे मिले और बिखरे, बने और बिगड़े उसे पुद्गल कहते हैं । यो पुद्गल का लक्षण किया है- जो वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हों । अर्थात् - जो मूर्त द्रव्य हो, वह पुद्गल है और उसके प्रदेशों के समूह का नाम पुद्गलास्तिकाय है ।
पुद्गलास्तिकाय द्रव्य का लक्षण शास्त्र में इस प्रकार किया गया हैशब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप (धूप), वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गलों के लक्षण हैं |
पूर्वोक्त पांच द्रव्य अरूपी हैं, जबकि पुद्गल रूपी है । इसलिए इसके लक्षण भी रूपी हैं
१. (क) ....जीवो उवओोगलक्खणो ।
नाणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य ॥ (ख) चेतना लक्षणो जीवः ।
(ग) अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाणअलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठसंठाणं ॥ (घ) नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥
- उत्तरा० २८।१०
- प्रवचनसार २५०
- उत्तराध्ययन २८ । ११