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________________ २१० | जैन तत्वकलिका - सप्तम कलिका स्वयं वर्त (परिवर्तित हो) रहा है, तथा स्वयं वर्तने (परिवर्तित होने वाले जीव और अजीव पदार्थों की वर्तना (परिवर्तन या परिणमन ) क्रिया में सहायक बनता है । इस जगत् में जीव और पुद्गल आदि पदार्थ अपने-आप वर्त ( परिवर्तित होते) हैं, उनकी नवीन - पुरातन आदि अवस्थाओं को बदलने में निमित्त रूप से सहायता करता है, वह काल है । कालद्रव्य वस्तुमात्र के परिवर्तन कराने में सहायक है । यद्यपि परिवर्तन (परिणमन) करने की शक्ति सभी पदार्थों में स्वयं अपनी है, किन्तु बाह्य निमित्त के बिना उस शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । जैसे - कुम्हार के चाक में घूमने की शक्ति मौजूद है, किन्तु कील की सहायता के बिना वह घूम नहीं सकता । इसी प्रकार संसार के पदार्थ भी काल की सहायता पाए बिना परिवर्तन नहीं कर सकते । यद्यपि काल द्रव्य वस्तुओं का बलात् परिणमन नहीं कराता और न एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य रूप में परिणमन कराता है, किन्तु स्वयं परिणमन करते द्रव्यों का सहायक मात्र हो जाता है । अल्पायु-दीर्घायु, यौवन-वृद्धत्व, नूतन पुरातन, प्रातः मध्याह्न-सायंकाल तथा ज्येष्ठ-कनिष्ठ इत्यादि विश्व में जो भी व्यवहार होते हैं, वे सब काल की सहायता से ही होते हैं । (५) जीवास्तिकाय - उपयोग ( मतिज्ञानादि) जीव का लक्षण है । दूसरे शब्दों में कहें तो जिसमें चेतना शक्ति हो, उस जीव कहते हैं और उसके असंख्य प्रदेशों का समूह जीवास्तिकाय है । सारांश यह है कि जिसको पदार्थों का ज्ञान (विशेष बोध) और दर्शन ( सामान्य बोध) हो, साथ ही सुखदुःखों का अनुभव हो, वह जीवद्रव्य है । अजीव में चेतना शक्ति नहीं होती, जिस प्रकार कुड़छी भोजन के अनेक बर्तनों में घूमती तो है, परन्तु वह उनके रस के ज्ञान से वंचित रहती है, क्योंकि वह स्वयं जड़ है, इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के सभी जड़ पदार्थ गति करते या विभिन्न क्रिया करते हुए देखे जाते हैं । परन्तु उन जड़ पदार्थों में किसी प्रकार ज्ञान, विचार या सुख-दुःख का संवेदन नहीं होता । 1 अतः जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्य से पृथक् एक वास्तविक द्रव्य है; जिसमें रूप, रस, गन्ध या शब्द भी नहीं हैं, जो अव्यक्त है, किसी भौतिक चिन्ह से भी जिसे नहीं जाना जा सकता और न ही जिसका कोई निर्दिष्ट आकार है, उस चैतन्य विशिष्ट द्रव्य को जीव (आत्मा) कहते हैं ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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