SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तिकायधर्म - स्वरूप | २१३ से गोली छूटने पर दूर तक चली जाती है । प्रकाश, ध्वनि आदि पौद्गलिक वस्तुओं की गतिशीलता तो प्रसिद्ध है ही । प्रश्न होता है, जब जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य गतिशील स्थितिशील हैं तो वे स्वयं गति या स्थिति कर सकते हैं, करेंगे ही, उन्हें गति या स्थिति करने में किसी अन्य माध्यम की आवश्यकता क्यों ? इसका समाधान यह है कि कोई वस्तु स्वयं गति या स्थिति करने के स्वभाव वाली हो तो भी उसे गति या स्थिति में सहायक होने वाली वस्तु की आवश्यकता रहती ही है। मछली में तैरने का स्वभाव है, स्वयं स्वेच्छानुसार अपने बल से तैर सकती है, परन्तु यह तैरने की क्रिया जल की सहायता हो, तभी हो सकती है। रेलगाड़ी में दौड़ने की शक्ति है, परन्तु वह लोहे की पटरियों पर ही दौड़ सकती है, उनके बिना नहीं । एक जराजीर्ण वृद्ध में खड़े रहने की शक्ति तो है, किन्तु वह लकड़ी या दीवार के सहारे ही खड़ा हो सकता है । इसी प्रकार प्राणियों में स्थिर रहने की शक्ति तो है, परन्तु रास्ते में कोई वृक्ष या विश्राम स्थल मिले, तभी वे स्थिर रहते हैं, रेलगाड़ी में स्थिर होने की शक्ति है, परन्तु वह स्टेशन आने पर स्थिर होती है । आशय यह है, कि जीव और पुद्गल की गति स्थिति करने में किसी न किसी माध्यम आवश्यकता होती है । वह माध्यम क्रमशः धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य हैं ।' धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को माने बिना लोक- अलोक की व्यवस्था नहीं हो सकती । आचार्य मलयगिरि ने लोकालोक - व्यवस्था की दृष्टि से धर्मअधर्मद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध किया है । लोक है, इसमें किसी को सन्देह नहीं हो सकता; क्योंकि लोक तो इन्द्रियगोचर है । अलोक इन्द्रियगोचर नहीं, इसलिए उसके अस्तित्व - नास्तित्व के सम्बन्ध में प्रश्न उठ सकता है । किन्तु लोक का अस्तित्व मानने पर उसके विपक्षी अलोक का अस्तित्व तर्कशास्त्र के अनुसार स्वतः सिद्ध हो जाता है । जिसमें जीव आदि सभी द्रव्य होते हैं, वह लोक है, जहाँ केवल आकाश ही आकाश है, वह अलोक है । अलोक में जीव और पुद्गल नहीं होते, क्योंकि वहाँ धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव है । इसलिए लोक और अलोक दोनों के परिच्छेदक या विभाजक द्रव्य धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को माने बिना कोई चारा ही नहीं । यदि ऐसा न हो तो धर्म और अधर्म द्रव्य का आधार क्या रहेगा ? १. गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्म योरुपकारः । २. (क) धर्माधर्म विभुत्वात् सर्वत्र च जीव पुद्गलविचारात् । नालोक कश्चित् स्यान्न च सम्मतमेतदर्थाणाम् ॥ १ ॥ — तत्वार्थ० ५/१७ (क्रमशः )
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy