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२०८ | जैन तत्त्वकलिका - सप्तन कलिका
३. आधार या अवकाश भी विश्व की स्थिति के लिए जरूरी है । आधार या अवकाश का हेतु या उपकारक 'आकाशास्तिकाय' नामक द्रव्य है । ४. 'परिवर्तन' के बिना विश्व का कार्य या व्यवहार नहीं चल सकता । अतः परिवर्तन अनिवार्य है । उसका हेतु या उपकारक द्रव्य 'काल' है ।
५- ६. विश्व में मूर्त्त एवं जड़ पदार्थ भी हैं, अमूर्त एवं चैतन्य भी हैं । जो मूर्त है, वह पुद्गल द्रव्य है, जो अमूर्त चैतन्य है, वह जीव है । इनकी सामूहिक क्रिया-प्रक्रिया तथा उपकारकता ही समग्र लोक है ।
वास्तविकतावाद (जिसे पदार्थवाद कह सकते हैं) में उपयोग पर कोई विचार नहीं होता, केवल उसके 'अस्तित्व' का ही विचार होता है । परन्तु जैनदर्शन (जिनोक्त तत्त्वदर्शन) द्रव्यों के अस्तित्व और उपयोग, इन दोनों का विचार करता है । इसीलिए उसके द्वारा किया गया मूल्यनिर्णय बिलकुल यथार्थ एवं विविध- नयसापेक्ष होता है । द्रव्य का एक लक्षण भी आचार्य ने किया है - ' उपकारकं द्रव्यम्' - किसी द्रव्य को द्रव्य मानने का 'कारण उसकी उपकारकता या उपयोगिता है ।
द्रव्यों का लक्षण
(१-२) धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय - द्रव्यों की सूची में धर्म और अधर्म का नाम देखकर सामान्य जन भड़क उठते हैं और कहते हैं-धर्म और अधर्म तो जीवन से सम्बन्धित अमुक प्रवृत्तियों की संज्ञा है, उन्हें द्रव्य कैसे कह सकते हैं ?
परन्तु यहाँ धर्म-अधर्म का जो निर्देश किया है, वह जीवन-सम्बन्धित शुद्ध-अशुद्ध प्रवृत्ति रूप धर्म-अधर्म का नहीं; किन्तु विश्वव्यवस्था में 'सहायक दो मूल द्रव्यों का है । उत्तराध्ययन सूत्र में धर्म और अधर्म द्रव्य का लक्षण इस प्रकार किया है— 'धर्म गतिलक्षण है, अधर्म स्थितिलक्षण है ।'
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स्पष्ट लक्षण यह है कि स्वयं गमन के प्रति प्रवृत्त हुए जीवों और पुद्गलों की गतिक्रिया में जो सहायक हो, वह धर्मास्तिकाय और स्थिति में रहे हुए (ठहरे स्थिर रहे हुए) जीवों और पुद्गलों की स्थितिक्रिया में जो सहायक हो, वह अधर्मास्तिकाय है । '
जैसे पानी में तैरने के स्वभाव वाली मछलियों को तैरने में सहायता
१. (क) गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो' - उत्तरा० अ.२८ गा. ६ (ख) स्वत एव गमनं प्रति प्रवृत्तानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भकारी धर्मास्तिकाय, स्थिति परिणातानां तु तेषां स्थितिक्रियोपकारी अधर्मास्तिकायः । - उत्तरा० भावविजयगणि भा० ३, पृ० २५६