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________________ अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २०७ धर्म सम्यग्दृष्टि के लिए तभी धर्माचरणरूप हो सकता है, जब वह शुद्ध अध्यात्म दृष्टि से षट् द्रव्यों का मूल्यनिर्णय करे । निश्चय दृष्टि से कोई भी द्रव्य अपने-आप में प्रिय (इष्ट) या अप्रिय (अनिष्ट) नहीं है, किन्तु उस वस्तु के (ग्राहक) मूल्यनिर्णय करने वाले की दृष्टि पर निर्भर है कि वह व्यवहार में किस वस्तु को इष्ट या अनिष्ट मानता है।' यदि व्यक्ति अशुद्ध दशा में है तो उसके द्वारा किया गया वस्तु मूल्यनिर्णय भी अशुद्ध होगा और यदि व्यक्ति शुद्ध दशा में है तो उसके द्वारा वस्तु का किया गया मल्यनिर्णय शुद्ध (पारमार्थिक दृष्टि से) होगा । इसीलिए छद्मस्थ के निर्णय और केवली के निर्णय में अन्तर है। फिर भी छद्मस्थ यदि सम्यग्दृष्टि है तो वह केवली आप्तपुरुष द्वारा किये गए वस्तु मूल्यनिर्णय में निहित दृष्टिकोण या रहस्य को समझकर उस तत्त्वनिर्णय को श्रद्धापूर्वक अपना लेता है। भगवान् महावीर द्वारा अस्तिकायधर्म को दश प्रकार के धर्मों में बताने का यही रहस्य प्रतीत होता है। इस कलिका में हम क्रमशः छह द्रव्यों के अस्तित्व-निर्णय, वस्तुत्व-निर्णय तथा इनके मूल्यनिर्णय का भी प्रतिपादन जिनोक्त दृष्टि से करेंगे । वास्तविकतावाद और उपयोगितावाद पदार्थों या द्रव्यों के अस्तित्व के बारे में विचार करना वास्तविकतावाद या अस्तित्ववाद है । अस्तित्व की दृष्टि से मुख्यतया दो पदार्थ-जीव और अजीव (चेतन और अचेतन) या ६ द्रव्य हैं। उपयोगिता के दो रूप हैं-जागतिक और आध्यात्मिक । षड्द्रव्य की व्यवस्था विश्व (लोक) के सहज प्रवर्तन-संचलन या सहज नियम की दष्टि से हई है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के लिए क्या उपयोग है, यह ज्ञान हमें इससे मिलता है । षड्द्रव्यों की उपयोगिता और उपकारकता का विचार हम इस प्रकार कर सकते हैं-- १. गति विश्व-व्यवस्था के लिए आवश्यक है। गति का हेतु या उपकारक 'धर्मास्तिकाय' नामक द्रव्य है । २. स्थिति भी विश्व-व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। स्थिति का हेतु या उपकारक 'अधर्मास्तिकाय' नामक द्रव्य है। १. न रम्यं नारम्यं प्रकृति गुणतो वस्तु किमपि । प्रियत्वं वस्तूनां भवति च खलु ग्राहकवशात् ॥
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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