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२०६ | जैन तत्त्वकलिका-सप्तम कलिका अस्तिकाय हैं, इन दोनों का जो धर्म (अनादि-स्वभाव) है, वह अस्तिकायधर्म है।
चतुर्थ अर्थ-अस्तित्व (निश्चय दृष्टि से निकाल स्थायित्व) की दृष्टि से सर्वज्ञ-आप्तपुरुषों ने समग्र लोक में जिन षड्द्रव्यों के अस्तित्व का निर्णय किया है, वे अस्तिकाय हैं; तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की दृष्टि से इन षड्द्रव्यों का जो मूल्यनिर्णय किया है, वह इनका धर्म है। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा यह है कि धर्मसाधक, सर्वज्ञ वीतराग पुरुषों ने लोक में जिन छह पदार्थों-द्रव्यों की पृथक्-पृथक् सत्ता (अस्तित्व) बताई है, तथा जिस रूप में उनके गुण-धर्मों का तथा उपयोगिता का जो मूल्यनिर्णय किया है, उसे उस रूप में जाने और माने तथा जिन षड्द्रव्यरूप ज्ञय पदार्थों का. लोक में अस्तित्व बताया है तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुदगल, इनमें से कौन-सा द्रव्य अध्यात्म-साधना में कितना उपयोगी है, कितना उपादेय है, कितना और कब हेय है ? आत्मा के साथ उस उस द्रव्य का क्या, कैसा और कितना सम्बन्ध है ? आत्मसाधना की दष्टि से किस पदार्थ का कैसे और कितना उपयोग करना है ? किस-किस द्रव्य का कौनसा धर्म है, वह कितना अभीष्ट है, कितना अनिष्ट ? इसका विवेक और श्रद्धान करना ही अस्तिकाय-धर्म का आचरण है।
यों तो वस्तुमात्र ज्ञ य है और अस्तित्व की दृष्टि से ज्ञय-मात्र सत्य है । सत्य का मूल्य सैद्धान्तिक होता है, परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से सत्य होते हुए भी शिव तभी हो सकता है, जब उसका मूल्यनिर्णय परमार्थ दृष्टि सेआत्म-विकास की अपेक्षा से हो । उसका सौन्दर्य भी आत्मविकास की दृष्टि से आंका जाए। जैसे रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-शब्दात्मक पुद्गल बाह्य दृष्टि से तो हेय माने जाते हैं किन्तु साधक को आहार, स्थान, वस्त्र, पात्र, पूस्तक, शास्त्रश्रवण, शरीर, इन्द्रियाँ आदि का पुद्गल रूप में संयम निर्वाह के लिए ग्रहण करना अभीष्ट है । अतः वह कथञ्चित् उपादेय है।' . . व्यवहारदृष्टिपरक असंयमी व्यक्ति की दृष्टि में पौद्गलिक भोगविलास उच्च जीवन स्तर के लिए उपयोगी हैं, किन्तु संयमी अध्यात्मसाधक की दृष्टि में सभी गीत-गान विलाप मात्र हैं, सभी नाटक विडम्बनाएँ हैं, सभी आभूषण भार रूप हैं और काम-भोग दुःखावह हैं । इसलिए अस्तिकाय
--दशवै० ६।२०
१. जं पि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपंछणं ।
तं पि संजमलज्जट्टा धारंति परिहति य ॥ २. सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्ट विडंबियं ।
सचे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥
-उत्तरा० १३।१६