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अस्तिकायधर्म-स्वरूप | २०५ स्कन्ध द्विप्रदेशी से यावत् अनन्ताणुक स्कन्ध अनन्त प्रदेशी होता है। जीव भी अनन्तव्यक्तिक है; किन्तु प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशी है। ____काल के न तो प्रदेश हैं, न परमाणु । वह औपचारिक द्रव्य है । प्रदेश न होने से, उसके अस्तिकाय होने का प्रश्न ही नहीं उठता। काल के अतीत समय विनष्ट हो जाते हैं। अनागत समय अनुत्पन्न होते हैं। इसलिए काल स्वयं वर्तमान एक समय का है। इसलिए उसके स्कन्ध नहीं बनते। एक समय का होने से उसका तिर्यकप्रचय नहीं होता। इन दोनों के अभाव के कारण भी काल को अस्तिकाय में नहीं माना है। .
निष्कर्ष यह है कि जो द्रव्य सप्रदेशी है, उसे अस्तिकाय कहते हैं। अस्तिकायधर्म
अस्तिकाय के साथ धर्म-शब्द जुड़ जाने से इस शब्द के चार अर्थ विभिन्न अपेक्षाओं से प्रतिफलित होते हैं।
. प्रथम अर्थ-पंच-अस्तिकायों का जो धर्म है अर्थात्-स्वभाव, गुण या धर्म है, वह अस्तिकायधर्म है।
द्वितीय अर्थ-अस्तिकायरूप धर्म-धर्मास्तिकाय है, वह अस्तिकायधर्म है, क्योंकि वह जीव और पुद्गल को गतिपर्याय में सहायक बनता हैधारण करता है, इसलिए वह अस्तिकायधर्म कहलाता है। भगवती सूत्र में नाम के साधम्र्य से धर्म और धर्मास्तिकाय को पर्यायवाची माना है। इस कारण वृत्तिकार ने भी यहाँ धर्मास्तिकाय को ही अस्तिकायधर्म में धर्म के रूप में प्रस्तुत किया है।' धर्मास्तिकाय को धर्म का सहधर्मी बताने का एक कारण यह भी हो सकता है कि धर्मास्तिकाय गति-सहायक द्रव्य है। इसलिए कर्मक्षय करने में धर्मास्तिकाय की भी सहायता अपेक्षित है। सम्भव है, इस अभिप्राय से शास्त्रकार ने धर्म और धर्मास्तिकाय को सदृश गिना हो।
तृतीय अर्थ-इस जगत में मूल पदार्थ दो हैं, दोनों के विस्तार का नाम विश्व है। इन दोनों द्रव्यों का अस्तित्व-अनादि-अनन्त है। अस्ति शब्द सत् शब्द से निष्पन्न हुआ है। सत् का अर्थ है-जो तीनों काल में विद्यमान रहे । अतः उक्त दोनों द्रव्य, निश्चय से त्रिकाल स्थायी होने से,
१. 'अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायो-राशिरस्तिकायः; धर्मो - गतिपर्याये जीवपुद्गलयोर्धारणादित्यस्तिकायधर्मः।
-स्थानांग, १० स्थान वृत्ति २ 'कालत्रये तिष्ठतीति सत्'