________________
२०४ | जैन तत्त्वकलिका - सप्तम कलिका
जीव- ये षट् द्रव्य हैं । प्रत्यक्षदर्शी जिनेन्द्रों ने इन षट्द्रव्यों को लोक कहां | लोक का अस्तित्व बताने के साथ-साथ आप्त सर्वज्ञ पुरुषों ने लोक के अन्तर्गत छह द्रव्यों का सह-अस्तित्व बताया ।
,
इसका फलितार्थ यह हुआ कि सर्वज्ञों ने, समग्र लोक में जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबका वर्गीकरण छह भागों में किया । अस्तित्व निर्णय के साथ-साथ मूल्य का निर्णय भी उन्होंने दिया । अर्थात् - इन छह द्रव्यों के गुणधर्म, उपयोगिता, आत्मा के लिए कौन-सा द्रव्य हेय, ज्ञ ेय या उपादेय है ? इसका विवेक भी बताया है । आचार्यों ने इनके अस्तित्व का युक्ति से भी निर्णय किया है ।
काल को औपचारिक रूप से ( श्वेताम्बर परम्परा में) द्रव्य माना गया है, वस्तुवृत्या नहीं। इसी कारण काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों को 'अस्तिकाय ' कहा गया है । कालद्रव्य के प्रदेश नहीं होते; इस कारण उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया । इसी दृष्टि से कहीं-कहीं लोक के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाने पर भगवान् ने लोक को 'पंचास्तिकाय रूप' बताया है । ' अस्तिकाय की परिभाषा
.
अस्ति का अर्थ है - प्रदेश और काय का अर्थ है - उनकी राशि - समूह ।' अर्थात् —प्रदेशों का समूह अस्तिकाय कहलाता है । प्रदेश का अर्थ है - द्रव्य का निरंश अवयव । धर्म, अधर्म, आकाश और जीव के प्रदेशों का विघटन नहीं होता । इसलिए ये अविभागी ( निरंश) द्रव्य है । ये अवयवी इसलिए हैं कि इनके परमाणु-तुल्य खण्डों की कल्पना की जाए तो ये असंख्य होते हैं ।
पुद्गल यों तो विभागी द्रव्य है, किन्तु उसका शुद्ध रूप परमाणु है, जो अविभागी है । परमाणुओं में संयोजन- वियोजन स्वभाव होता है । अतः उनके स्कन्ध बनते हैं तथा उनका विघटन होता है । कोई भी स्कन्ध शाश्वत नहीं होता । इसी अपेक्षा से पुदगल द्रव्य विभागी है । वह धर्म आदि द्रव्यों की तरह एकव्यक्ति नहीं, किन्तु अनन्तव्यक्तिक है । जिस स्कन्ध में जितने परमाणु मिले हुए होते हैं, वह स्कन्ध उतने प्रदेशों का होता है । द्वयणक
१. किमियं भंते ! लोए त्ति पवुच्चइ ?
गोमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवत्तिए लोएत्ति पवुच्चइ, तं जहा - धम्मत्थिकाए,
- भगवती, १३।४।४८ १
- स्थानांग, स्थान १० वृत्ति
अहम्मत्थकाए जाव पोग्गलत्थिकाए ।
२. अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायो - राशिरस्तिकायः ।