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________________ सप्तम कलिका अस्तिकायधर्म-स्वरूप जैनदर्शन अस्तिवादी है। वह विश्व के सभी पदार्थों का अस्तित्व मानता है । जो वस्तु वास्तव में है, उससे इन्कार करना, जैन दर्शन को इष्ट नहीं है। परन्तु इतने मात्र से ही आस्तिक्य सिद्ध नहीं हो जाता। अस्तित्व की दृष्टि से सभी पदार्थ समान हैं, किन्तु मूल्यनिर्णय की दृष्टि चेतना से सम्बद्ध है। वस्तु का अस्तित्व तो स्वयंजात होता है, उससे कोई इन्कार करे तो उसका कोई अर्थ नहीं; किन्तु उसका मूल्यांकन करना ही तत्त्वज्ञों का कार्य है । जैसे—'दही सफेद है', इसे कोई जाने या न जाने, किन्तु दही उपयोगी है या अनुपयोगी ? किस समय, कितना उपयोगी है ? कितना अनुपयोगी है ? इसका मूल्यनिर्णय चेतना से सम्बद्ध हुए बिना नहीं होता। जो पदार्थ साधारण आत्मा द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होते, उनके अस्तित्व एवं मूल्य का निर्णय परम चेतना से-विशिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञानियों द्वारा किया जाता है। मूल्यनिर्णय व्यक्ति की दृष्टि पर निर्भर है। अतीन्द्रिय वस्तु का अस्तित्व-निर्णय एवं मूल्यनिर्णय इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। उसके लिए आप्त वीतराग-सर्वज्ञों की दृष्टि ही मान्य एवं विश्वसनीय होती है । छद्मस्थ पुरुषों को दृष्टि वस्तुतत्त्व का पूर्णतया यथार्थ निर्णय करने में सक्षम • नहीं होती। वीतराग-सर्वज्ञ-आप्तपूरुषों ने विश्व के सभी पदार्थों का छह भागों में वर्गीकरण किया और कहा कि समग्र विश्व षड्द्रव्यात्मक है । यद्यपि जीव (चेतन) और अज़ीव (जड़) इन दो तत्त्वों में सारा विश्व आ जाता है, किन्तु पृथक्-पृथक् गुणधर्मों की दृष्टि से उनका पृथक्-पृथक् अस्तित्व बताया गया। पिछले प्रकरण में लोकवाद के सन्दर्भ में बताया गया था कि 'यह लोक षड्द्रव्यात्मक है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और १. अवधिज्ञानी या मनःपर्यवज्ञानी द्वारा नहीं, अपितु केवलज्ञानियों द्वारा । २. जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। -उत्तरा० ३६।२ ३. धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ० २८, गा० ७
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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