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मोक्षवाद : कर्मों से सर्वथा मुक्ति | २०१
(५) देशविरति ( श्रावक ) गुणस्थान - प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो जीव सावद्यकार्यों से सर्वथा विरत न होकर एकदेश अथवा आंशिक रूप से विरत होते हैं, अणुव्रत या बारह व्रत तथा कोई श्रावक की ११ प्रतिमा ग्रहण करते हैं, वे देशविरति गुणस्थान के धारक होते हैं ।
(६) प्रमत्तसंगत गुणस्थान -- जिन जीवों के प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय नहीं रहता, केवल संज्वलन कषाय का उदय रहता है, वे जीव तीनकरण तीन योग से सावद्ययोगों का त्याग करके संयत (साधु) बनते हैं । उनके अत्यागभावरूप अविरति का तो सर्वथा अभाव हो गया है, किन्तु आत्मवर्ती अनुत्साहरूप प्रमाद विद्यमान रहने से वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। उनकी इस स्थिति का नाम प्रमत्तसंयत गुणस्थान है ।
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - प्रमत्तसंयत श्रमणं जब ज्ञान-ध्यान, त्याग, तप, प्रत्याख्यान, संयम, समिति गुप्ति, महाव्रतपालन आदि में उत्साहपूर्वक संलग्न एवं तल्लीन रहते हैं तब उनके आत्मप्रदेशों में प्रमाद बिलकुल नहीं रहता, तब वे अप्रमत्तसंयत कहलाते हैं । उनकी संयम साधना की यह स्थिति अप्रमत्तसंयत गुणस्थान है ।
(८) निवृत्तिबादर गुणस्थान - जिस गुणस्थान में अप्रमत्त आत्मा की अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानावरण - इन तीन चतुष्करूपी बादरकषाय की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को निवृत्तबादर गुणस्थान कहते हैं ।
यहाँ से दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं, (१) उपशम श्रेणी और (२) क्षपक श्रेणी । उपशमश्रेणी वाला मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है और वहाँ से वह नीचे के गणस्थानों में गिर जाता है किन्तु क्षपक श्रेणी वाला जीव दसवें से सीधा बारहवें गणस्थान में जाकर अप्रतिपाती हो जाता है । आठवे गुणस्थान में जीव ५ क्रियाओं को कार्यान्वित करता है - (१) स्थितिवात, (२) रराघात, (३) गणश्रेणी, (४) गणसंक्रमण और (५) अपूर्वकरण ।
(1) अनिवृत्तिवाद र गुणस्थान- - इसमें अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के तीन चोक तो उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, किन्तु संज्वलन कपाय के चौक की पूर्णतया निवृत्ति नहीं होती । इसीलिए इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान के स्वामी दो प्रकार के जीव होते हैं - ( १ ) चारित्रमोह के उपशमक और (२) क्षपक ।