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२०२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
(१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान- यहाँ संज्वलन क्रोध, मान और माया का तो उपशमन या क्षय हो जाता है, किन्तु संज्वलन लोभ ( सम्पराय ) के सूक्ष्म खण्डों (दलिकों) का उदय रहता है। इस स्थिति को सूक्ष्मसम्पराय गणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान के स्वामी भी पूर्वोक्त दोनों प्रकार
के हैं ।
(११) उपशान्तमोह गुणस्थान- उपशमश्रेणी वाला जीव मोहकर्म की सभी प्रकृतियों का उपशम करके जिस स्वरूपविशेष को प्राप्त होता है, उसे उपशान्तमोह गुणस्थान कहते हैं ।
(१२) क्षीणमोह नृणस्थान - क्षपक श्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्रमशः सर्वथा क्षय करके जिस अवस्थाविशेष को प्राप्त होता है उसे क्षीणमोह गणस्थान कहते हैं । कषाय और 'राग के क्षीण होने पर भी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीन घातिकर्म शेष रह जाते हैं किन्तु इस गुणस्थान के अन्तिम समय में वह इन तीन घातीकर्मों का भी नाश कर देते है और तेरहवें गुणस्थान में चढ़ जाता है ।
(१३) सयोगकेवली गुणस्थान - मोहनीयकर्म का क्षय करके जीव इस गणस्थान में आता है, और केवलज्ञान - केवलदर्शन को प्राप्त होता है। इस अवस्था में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद और कषाय ये चारों आस्रव नहीं रहते । केवल योग का आस्रव रहता है । इसलिए इसे सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं ।
(१४) अयोगीकेवलो गुणस्थान — जब केवली भागवान् के आयुकर्म के क्षय होने का समय आता है, तब वे योगों का निरोध करके इस गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। योगरहित दशा होने से इस अवस्था को अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं ।
अयोगकेवली शैलेशीकरण को प्राप्त करके उसके अन्तिम समय में वेदनीयादि चार भवोपग्राही (संसार में बांध कर रखने वाले) कर्मों को खपा देते हैं । अघाती चार क्मों का क्षय होते ही ऋजुगति से एक समय में सीधे ऊपर की ओर सिद्धक्षेत्र (मुक्तिस्थान) में चले जाते हैं। वहीं लोकाग्र भाग में ठहर जाते हैं, एवं सदा शाश्वत सुखों का अनुभव करते हैं ।
इस प्रकार आत्मवाद से लेकर मोक्षवाद तक का सम्यग् बोध प्राप्त करके, पूर्ण आस्तिक्य की आधारशिला सुदृढ़ बनाकर जोव अपने अन्तिम लक्ष्य - मोक्ष को प्राप्त कर सकता है ।