________________
२०० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
चतुर्थ श्रेणी के साधकों का कर्मभार अत्यधिक होता है । उनका साधनाकाल दीर्घतर होता है । वे घोर तप और घोर कष्ट सहन कर मुक्त होते हैं । इस श्रेणी के साधकों में सनत्कुमार चक्रवर्ती का नाम उल्लेखनीय है ।
मोक्षप्राप्ति के लिए आध्यात्मिक विकासक्रम
मोक्ष का अर्थ है- आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता । यह पूर्णता एकाएक प्राप्त नहीं हो जाती । अनेक भवों में भ्रमण करता हुआ जीव धीरेधीरे आत्मिक उन्नति करके पूर्ण अवस्था तक पहुँचता है । आत्मविकास के उस मार्ग में जीव क्रमिक विकास की जिन-जिन अवस्थाओं को प्राप्त करता है, उन्हें 'गुणस्थान' कहा जाता है । गुणों - आत्मशक्तियों के स्थानोंआत्मा की क्रमिक विकासावस्थाओं - क्रमिक विशुद्धिस्थानों को गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान १४ हैं
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान - सर्वज्ञभाषित तत्त्वों से विपरीत दृष्टि ( विचारधारा) वाला जीव मिथ्यादृष्टि है । मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान वाला जीव विपरीत श्रद्धा होते हुए भी अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि गुणों में श्रद्धा रखता है, उन्हें उत्तम मानता है । किन्तु उसकी तत्त्वश्रद्धा तथा आत्मश्रद्धा सम्यक् न होने से उसमें मिध्यादृष्टि गुणस्थान माना गया है ।
(२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान - जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व वाला है, लेकिन अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है | जब तक यह जोव मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता, तब तक वह सास्वादन सम्यग्दृष्टि है, उसकी इस अवस्था का नाम सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है ।
(३) सम्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान - अन्य तत्त्वों पर शुद्धश्रद्धा रखता हुआ भी जीव मिश्रमोहनीय कर्मोदय से किसी एक तत्त्व या तत्त्वांश पर सयुक्त रहता है । उसकी इस शंकाशील अवस्था का नाम सम्यक्मथ्यादृष्टि (मिश्र दृष्टि) गुणस्थान है ।
(४) अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान - सावद्यकार्यों का त्याग करना विरति है | चारित्र और व्रत इसी के नाम हैं । जो जीव सम्यग्दर्शन को धारण करके भी किसी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता, उसे अविरत - सम्यग्दृष्टि करते हैं । उसकी यह अवस्था अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है ।