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मोक्षवाद : कर्मों से सर्वथा मुक्ति | १६६
का भी पृथक् अस्तित्व रहता है। जिस प्रकार एक पुरुष के अन्तःकरण में नाना प्रकार की भाषाओं की आकृतियाँ परस्पर एकरूप होकर रहती हैं, उसी प्रकार मुक्तात्माएँ भी परस्पर आत्मप्रदेशों से सम्मिलित होकर विराजमान हैं।' कर्ममुक्त आत्माओं को अष्टगुणों की उपलब्धि
__ आठ कर्मों के क्षय होने से सिद्धों-मुक्तात्माओं को ८ विशिष्ट आत्मिकगुणों की उपलब्धि होती है। ज्ञानावरणीय के क्षय से केवलज्ञान, दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवलदर्शन, वेदनीयकर्म के क्षय से अव्याबाध सुख, मोहनीयकर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व, आयुष्य कर्म के क्षय से अक्षयस्थिति (अटल अवगाहना), नामकर्म के क्षय से अरूपीपन (अमूतता), गोत्रकर्म के क्षय से अगृरुलघुत्व और अन्तराय कर्म से क्षय से अनन्तवीर्य (शक्ति) प्राप्त होता है।
इन्हीं आठ वर्मों की ३१ प्रकृतियों के क्षय से सिद्धों में ३१ गुण प्रकट होते हैं । इसी प्रकार ५ संस्थान, ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस और ८ स्पर्श से तथा शरीर, संग (आसक्ति), पूनर्जन्म, स्त्रीत्व, पुरुषत्व एवं नपुंसकत्व इन ६ से रहित होने से सिद्ध भगवान् निरुपाधिक (३१ उपाधियों से रहित) कहलाते हैं, ये भी उनके ३१ गुण हैं। कर्ममुक्त होने वाले साधकों को चार मुख्य श्रेणियां
प्रथम श्रेणी के साधकों के कर्म का भार अल्प होता है। उनका साधना काल दीर्घ हो सकता है, परन्तु उन्हें न तो असह्य कष्ट सहने पड़ते हैं, न ही कठोर तप करना आवश्यक होता है, वे सहज जीवन बिताते हुए मुक्त होते हैं। यथा-भरत चक्रवर्ती ।
द्वितीय श्रेणी के साधकों के कर्म का भार अल्पतर होता है। उनका साधना-काल भी अल्पतर होता है। वे अत्यल्प तप और अत्यल्प कष्ट का अनुभव करते हुए सहजभाव से मुक्त होते हैं । यथा-मरुदेवी माता।
.. तृतीय श्रेणी के साधकों का कर्मभार अधिक होता है । उनका साधनाकाल अल्प होता है किन्तु वे घोर तप और घोर कष्ट का अनुभव करके मुक्त होते हैं । इस श्रेणी के साधकों में गजकुमार मुनि का नाम उल्लेखनीय है ।
१ (क) “जत्थ एगो सिद्धो तत्थ अणंत भवक्खयविप्पक्मुका अण्णोण्णसमोगाढा पुट्ठा सव्वे लोगते ।"
-प्रज्ञापना पद २ (ख) एक माहिं अनेक राजे, अनेक माहि एककं ।