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१६४ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
हम पूछते हैं कि अनन्त - अनन्त बार सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय करने में ईश्वर की शक्ति का अन्त हुआ या नहीं ? इस पर उनका कहना है कि 'ईश्वर अनन्तशक्तिमान है, उसकी शक्ति का कभी अन्त नहीं हो सकता, न ह्रास हो सकता है।' तो हमारा कहना है कि इसी प्रकार जीव भी अनन्त हैं । संसार में से कितने ही जीव मुक्ति में चले जाएँ फिर भी उनका अन्त नहीं आ सकता । ईश्वर की अनन्तशक्ति जैसे किसी भी काल में न्यून नहीं होती उसी प्रकार अनन्त आत्माएँ किसी भी काल में संसारचक्र से बाहर नहीं हो सकतीं । संसार को अनादि अनन्त मानने पर भी समग्र संसार कभी मुक्त नहीं हो सका, तो फिर भविष्य में इसका अन्त होने की सम्भावना कैसे की जा सकती है ?
अतः मुक्त आत्माओं की अपुनरावृत्ति की मान्यता ही युक्तिसंगत सिद्ध होती है ।
मोक्ष में आत्मगुणों का नाश नहीं
मोक्ष में आत्मा के सभी निजगुण शुद्ध एवं पूर्ण विकसित रूप में विद्यमान रहते हैं । वैशेषिक आदि कुछ दार्शनिक मोक्ष में सभी आत्मगुणों का सर्वथा उच्छेद मानते हैं, ' यह यथमपि युक्तिसंगत नहीं है । कमजन्य इच्छा-द्वेषादि अवस्थाओं के सिवाय यदि आत्मा अपने बुद्धि-ज्ञान गुण से भी रहित हो जाएगा, तब तो चेतनारहित जड़ - पदार्थवत् हो जाएगा । फिर तो जड़ पदार्थ और मुक्त आत्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा । किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । सत्य तथ्य यह है कि मोक्ष में सभी आत्मगुण अपने असली स्वरूप में विद्यमान रहते हैं ।
मुक्त जीवों की ऊर्ध्वगति कैसे ?
जब सब कर्मों से रहित हो जाता है, तब वह तत्काल गति करता है, स्थिर नहीं रहता । वह गति ऊँची और लोक के अन्त तक ही होती है, उससे ऊपर नहीं ।
प्रश्न होता है कि कर्म अथवा शरीर आदि पौद्गलिक पदार्थों की सहायता के बिना कर्ममुक्त अमूर्त' जीव गति कैसे करता है ? उसकी गति ऊर्ध्व ही क्यों होती है ?
इन प्रश्नों के समाधान इस प्रकार हैं
१ बुद्धि-सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष प्रयत्न-धर्माधर्म-संस्काराणां नवानामात्मगुणानां उच्छेदः मोक्षः । - वैशेषिकदर्शन