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मोक्षवाद : कर्मों से सर्वथा मुक्ति | १६५
जीवद्रव्य का स्वभाव पुद्गलद्रव्य की भांति गतिशील है । अन्तर इतना ही है कि पुद्गल स्वभावतः अधोगतिशील है और जीव ऊर्ध्वगतिशील । परन्तु जीव अन्य प्रतिबन्धकद्रव्य के संग या बन्धन के कारण गति नहीं करता अथवा नीची या तिरछी दिशा में गति करता है । ऐसा प्रतिबन्धक द्रव्य कर्म है | कर्म संग छूटने पर और उसके बन्धन टूटने पर कोई प्रतिबन्धक तो रहता नहीं, अतः मुक्त आत्मा को अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति करने का अवसर मिलता है । यहाँ पूर्वप्रयोग निमित्त बनता है, मुक्त जीव के ऊर्ध्वगति करने में । पूर्व प्रयोग का अर्थ है - पूर्वबद्ध कर्म छूट जाने के बाद भी उससे प्राप्त वेग (आवेश ) । जैसे - कुम्हार का चाक डण्डे और हाथ के हटा लेने के बाद भी पहले से प्राप्त वेग के कारण' घूमता रहता है, वैसे हो कर्ममुक्त जीव भी पूर्वकर्म से प्राप्त आवेश के कारण स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति ही करता है ।
भगवती सूत्र ( शतक ७ उद्द ेशक १) में भगवान् महावीर और गौतम स्वामी का इस सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित है । श्री गौतमस्वामी द्वारा अकर्मक (कर्ममुक्त जीवों की गति के सम्बन्ध में पूछे जाने पर श्री भगवान् ने कहा- - अकर्मक जीवों की भी (ऊर्ध्व) गति मानी जाती है, उसके निम्नोक्त ६ कारण हैं – (१) कर्मों का संग छूटने से, (२) मोह के दूर होने से - राग रहित होने से, (३) गति - परिणाम (स्वभाव) से, (४) कर्मबन्धन के छेदन से, (५) कर्मरूपी ईंधन के अभाव से, और (६) पूर्वप्रयोग से । . इन कारणों से अकर्मक जीवों की गति जानी जाती है ।
इन्हीं कारणों को दृष्टान्त देकर भगवान् समझाते हैं
जैसे कोई व्यक्ति छिद्ररहित एवं वायु आदि से अनुपहत सूखे तुम्बे को क्रमशः परिकर्म ( संस्कारित) करता हुआ उस पर दर्भ और कुशा लपेटता है, फिर आठ बार मिट्टी का लेप लगाता है, बार-बार धूप में सुखाता है । जब तुम्बा सब प्रकार सूख जाता है, तब उसे अथाह और अतरणीय (जो तैर कर पार न किया जा सके ) जल में डालता है । ऐसी स्थिति में मिट्टी के आठ लेपों से भारी बना हुआ वह तुम्बा पानी के तल को पार करके ठेठ नीचे धरती के तल पर जाकर ठहर जाता है । किन्तु वही तुम्बा मिट्टी के लेप उतर जाने से जैसे ऊपर को उठ आता है, उसी प्रकार कर्मों का
१ (क) तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छन्त्यालोकान्तात् ।
(ख) पूर्व प्रयोगादसंगत्त्वाद् बधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः ।
- तत्त्वार्थ० अ० १०।५-६