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१६२ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका स्वाधीन आत्मिक सुख प्राप्त कर लेता है। मोक्ष में खाना-पीना, खेलनाकूदना, नहाना-धोना आदि शारीरिक क्रियाओं से सम्बन्धित सुख नहीं हैं, क्योंकि मुक्त आत्माएँ अशरीरी हैं । शरीर न होने से उनमें शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं हैं, फिर भी वे जन्म-मरणादि दुःखों के अत्यन्ताभाव रूप अनन्त आनन्द का अनुभव कर रही हैं । ऐसे मुक्तात्मा अपने निर्मल चिद्र प में सदैव आनन्दित हैं। कर्ममुक्त शुद्धदशा का जो सुख है, वही पारमार्थिक सुख है। मोक्ष का शाश्वतत्व
- कई लोग यह शंका करते हैं कि कर्मबद्ध आत्मा जब कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाता है, तो उसका मोक्ष हो जाता है, इसलिए यों कहना चाहिए कि मोक्ष की भी उत्पत्ति होती है, क्योंकि उसकी आदि है। और जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है, उसका एक दिन विनाश भी होता है। अतः मोक्ष की उत्पत्ति होने से उसका भी अन्त होना चाहिए । इस प्रकार मोक्ष शाश्वत सिद्ध नहीं हो सकता। तथा जो आत्मा मोक्ष में जाता है, वह भी कुछ समय वहाँ रहकर पुनः संसार में आजाएगा।
इसका समाधान यह है कि मोक्ष कोई उत्पन्न होने वाली वस्तु नहीं है। केवल कर्मबन्ध से छुट जाना अथवा कमी का आत्मा पर से हट जाना ही आत्मा का मोक्ष है। इससे आत्मा में कोई नई वस्तु उत्पन्न नहीं होती, जिससे उसके अन्तं की कल्पना करनी पड़े। जिस प्रकार बादल हट जाने से जाज्वल्यमान सूर्य प्रकाशित हो जाता है, इसी प्रकार कर्मों के आवरण हट जाने से आत्मा के सब गुण प्रकाशित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, आत्मा अपने मूल ज्योतिर्मय चितस्वरूप में पूर्ण प्रकाशित (आत्मस्वरूप लाभ) हो जाता है इसी का नाम मोक्ष है। मुक्त आत्मा का पुनरागमन नहीं होता
सर्वथा निर्मल मुक्त आत्मा पुनः कर्म से बद्ध नहीं होता, इसी कारण उसका संसार में पुनरावर्तन (पुनः आगमन) नहीं होता। जब सिद्ध
१. आचारांग श्रु० १. अ० ५।६ २ (क) आत्मलाभं विदुर्मोक्षं, जीवस्यान्तर्मलक्षयात् ।
नाभावो, वाऽप्यचैतन्यं, न चैतन्यमनर्थकम् '-मिद्धिविनिश्चय पृ० ३८४ (ख) मोक्षस्य नहि वासोऽस्ति, न ग्रामान्तरमेव च ।
अज्ञानहृदय ग्रन्थिनाशो, मोक्ष इति स्मृतः ।। : : -शिवगीता १३।३२ ३ अपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । शक्रस्तव (नमोत्युणं) पाठ