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भोक्षवाद : कर्मों से सर्वथा मुक्ति | १६१
अभाव हो जाता है । जैसे -बीज के जल जाने पर उसमें पुनः अंकुरित होने ( उत्पादन) शक्ति नहीं रहती इसी तरह कर्मरूपी बीज सर्वथा जल जाने पर संसाररूपी अंकुर की भी उत्पत्ति नहीं होती । इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि जो आत्मा कभी कर्मों से बँधा हो, वह एक दिन उनसे मुक्त भी हो सकता है।
मुक्तावस्था का सुख और सांसारिक सुख
मुक्त आत्माएँ मोक्ष में अनन्त आत्मिक सुखों में लीन हो जाती हैं । मुक्तावस्था में कर्मों की कोई उपाधि न रहने से शरीर, इन्द्रिय एवं मन का वहाँ सर्वथा अभाव हो जाता है । इस कारण मुक्त आत्मा जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि एवं वेदना से छुटकारा पाकर सदैव अनन्त आत्मिक सुखों में रमण करता है जो निर्बन्धन निरुपाधिक विषयों से अतीत सुख है । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि भूत-भविष्यत् वर्तमान, इन तीनों काल के दिव्य सुखों को एकत्रित करके उन्हें अनन्त बार गुणा करने पर जो राशि आती है, उससे भी मोक्ष के सुख अधिक हैं। संक्षेप में मोक्षसुख अक्षय, अव्यय, अव्याबाध, अनुपमेय एवं अनिर्वचनीय है ।
- तसे अनभिज्ञ लोग शंका करते हैं कि मोक्ष में तो कुछ भी सुख नहीं है । वहाँ मन बहलाने का कोई साधन नहीं है । आमोद-प्रमोद के साधन भी नहीं हैं । बाग, बंगला तथा अन्य सुखसामग्री भी नहीं, अतः वहाँ क्या सुख हो सकता है ?
इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि संसार में जिस अभीष्ट वस्तु के न मिलने से दुःख माना जाता है, वह दुःख मोक्ष में नहीं है । क्योंकि सर्वदुःखों के कारण कर्म ही हैं । मुकात्माएँ तो कर्मकलंक से सर्वथा रहित हैं । उन्हें कर्मजन्य वैषयिक सुख या दुःख हो ही नहीं सकता । संसारी मनुष्य पांचों इन्द्रियों के विषयों की तृप्ति में सुख मानता है, किन्तु वे सुख कितने क्षणिक, पराधीन एवं वियोग में दुःखकारक हैं ? यह अनुभव तो सभी को होता है । अतः शुभकर्मजन्य सुख वास्तविक सुख नहीं है, वे दुःख का बीज बोने वाले हैं, अतः उनका भो क्षय करके आत्मा कर्ममुक्त होकर अनन्त,
१ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्म बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।
२ औपपातिकसूत्र सिद्धाधिकार १३
उत्तरा० २३०८१
- तत्त्वार्थ भाष्य कारिका ८