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१८८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका • यथासम्भव श्रुतज्ञान के आधार पर वह किसी एक द्रव्यरूप अर्थ से पर्यायरूप अन्य अर्थ पर अथवा एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य पर्यायरूप अर्थ पर या एक पर्यायरूप अर्थ पर से अन्य द्रव्यरूप अर्थ पर चिन्तन करता है। इस प्रकार उसका चिन्तन अर्थ से शब्द पर और शब्द पर से अर्थ पर चलता रहता है। इसी तरह मन, वचन, काया इन तीनों योगों का आलम्बन भी बदलता रहता है । शब्द, अर्थ और ध्येय पदार्थ भी पलटता रहता है।
अतः जिस ध्यान में श्रतज्ञान (वितर्क) का अवलम्बन लेकर एक अर्थ पर से दूसरे अर्थ, एक शब्द पर से दूसरे शब्द पर, या अर्थ पर से शब्द पर या शब्द पर से अर्थ पर तथा एक योग से दूसरे योग पर संक्रमण (संचार) किया जाता है, उसे पृथक्त्ववितर्कसविचार शुक्लध्यान कहते हैं।
यह आठवें से ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान तक ही होता है। ___एकत्व-वितर्क-निविचार-पूर्वोक्त कथन के विपरीत जब . ध्याता अपने में सम्भाव्य श्रुतज्ञान (वितर्क) के आधार पर किसी एक ही पर्यायरूप पदार्थ पर, तीनों योगों में से किसी एक योग पर या किसी एक ही शब्द पर एकत्व (अभेद) प्रधान चिन्तन में अपना उपयोग स्थिर कर लेता है, शब्द या अर्थ के चिन्तन का एवं विभिन्न योगों में संक्रमण का परिवर्तन नहीं करता, उसका वह ध्यान एकत्ववितर्क निर्विचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान है।
यह ध्यान १२वें गुणस्थान में होता है।
उक्त दोनों शुक्लध्यानों में से पहले भेदप्रधान शुक्लध्यान का अभ्यास दृढ़ हो जाने के बाद ही दूसरे अभेद (एकत्व) प्रधान शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त होती है।
इन दोनों शुक्लध्यानों में सम्पूर्ण जगत् के भिन्न-भिन्न विषयों में भटकते हुए मन को किसी भी एक विषय पर केन्द्रित करके स्थिर किया जाता है। उपयुक्त क्रम से दोनों प्रकार के ध्यानों से एक विषय पर स्थिरता प्राप्त होते ही मन भी सर्वथा शान्त हो जाता है। चंचलता मिट जाने से मन निष्प्रकम्प बन जाता है। फलतः ज्ञान के समस्त आवरणों का विलय हो जाने पर सर्वज्ञता प्रकट होती है।
सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती-जब सर्वज्ञ भगवान् योगनिरोध के क्रम में अन्त में सूक्ष्मशरीरयोग का आश्रय लेकर शेष योगों को रोक देते हैं, तब वह सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। यह ध्यान १३वें गुणस्थान के अन्त १ शुक्ले चाद्य पूर्वविदः, परे केवलिनः । -तत्त्वार्थ० अ० ६ सू०३९-४०