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________________ १८६ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका को जलाकर भस्म बना देता है और फिर धीरे-धीरे शान्त हो रहा है । अग्निशिखा, जहाँ से उठी थी, वहीं समा गई है । इस प्रकार का चिन्तन करना आग्नेयी धारणा है। (३) मारुति धारणा-दूसरी धारणा का अभ्यास होने के पश्चात् साधक यह सोचे कि मेरे चारों ओर पवनमण्डल घूमकर पूर्वोक्त राख को उड़ा रहा है। उस मण्डल में सब ओर ‘स्वाय' लिखा है। (४) वारुणी धारणा–तीसरी धारणा का अभ्यास होने के पश्चात् यह विचार करे कि आकाश में काले-काले मेघ मण्डरा रहे हैं और पानी बरस रहा है। यह पानी मेरी आत्मा पर लगे हुए कर्म-मैल को धोकर उसे (आत्मा को) स्वच्छ-शुद्ध कर रहा है। जलमण्डल पर सब ओर प प प प लिखा हुआ है। (५) तत्त्वरूपवती धारणा-चौथी धारणा का भलीभांति अभ्यास हो जाने पर स्वयं को समस्त कर्मरहित शुद्ध सिद्धसम अमूर्तिक स्फटिकवत् निर्मल आत्मा के रूप में देखता रहे । यह तत्त्वरूपवती धारणा है। इन पाँचों धारणाओं का उद्देश्य चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास तथा ध्यान में स्थिरता लाना है। यह पिण्डस्थ धर्मध्यान का स्वरूप है । पदस्थध्यान-किसी पद (शब्दसमूह) को लेकर उस पर एकाग्रतापूर्वक ध्यान करना पदस्थ ध्यान है । साधक अपनी इच्छानुसार एक या अनेक पदों को विराजमान करके ध्यान कर सकता है। जैसे-हृदयस्थान में आठ पंखड़ियों के एक श्वेतकमल का चिन्तन करके उसके ८ पत्रों पर क्रमशः ये आठ पद पीले रंग के अंकित करे। यथा--(१) णमो अरहंताणं, (२) णमो सिद्धाणं, (३) णमो आयरियाणं, (४) णमो उवज्झायाणं, (५) णमो लोए सव्वसाहूणं, (६) सम्यग्दर्शनाय नमः (७) सम्यग्ज्ञानाय नमः (८) सम्यक् चारित्राय नमः । - साथ ही प्रत्येक पद पर रुकता हुआ उसके अर्थ का विचार करता रहे । अथवा अपने हृदय पर या मस्तक पर अथवा दोनों भौंहों के बीच में या नाभि में 'ह्र 'हं' अथवा 'ॐ' को चमकते हुए सूर्यसम देखे तथा उन पर अरहन्त एवं सिद्ध के स्वरूप का विचार करे; इत्यादि । यह ध्यान एक से लेकर अनेक अक्षरों के मंत्रों का किया जा सकता है। ___रूपस्थ ध्यान-किसी महापुरुष के रूप (प्रतिकृति-आकृति)का एकाग्रतापूर्वक ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। जैसे-ध्याता अपने चित्त में यह चिन्तन
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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