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मोक्षवाद : कर्मों से सर्वथा मुक्ति | १८५
पिण्डस्थ ध्यान-ध्यान करने वाला मन, वचन एवं कायां शुद्ध करके एकान्त स्थान में जाकर पद्मासन, खड्गासन या सिद्धासन अथवा पर्यकासन आदि किसी आसन से बैठ कर अपने पिण्ड या शरीर में विराजित आत्मा का ध्यान करता है, इसी का नाम पिण्डस्थ ध्यान है।
इसकी पांच धारणाएं हैं।
(१) पार्थिवी धारणा-इस मध्यलोक को क्षीरसमुद्र के समान निर्मल देखकर उसके मध्य में एक लाख योजन व्यास वाले जम्बूद्वीप के सदृश तपे हुए सोने के रंग के एक हजार पंखुड़ियों वाले कमल का चिन्तन करे । इस कमल की कर्णिका सुमेरुपर्वत के समान पीत रंग की एवं ऊँची है, ऐसा विचार करे । फिर इस पर्वत पर स्थित पाण्डुकवन में पाण्डकशिला पर एक स्फटिकमणिमय सिंहासन का चिन्तन करे, और अन्तश्चक्षु से देखे कि मैं इसी सिंहासन पर अपने कर्मों का क्षय करने के लिए ध्यानस्थ बैठा हूँ। इतना ध्यान बार-बार करके जमाए और अभ्यास करे। जब इसका अभ्यास हो जाए तब दूसरी धारणा का मनन करे। . (२) आग्नेयी धारणा-उसी स्फटिक सिंहासनस्थ होकर ध्यान करने वाला यह सोचे कि मेरी नाभि के स्थान में ऊपर की ओर मुख किये १६ पंखुड़ियोंवाला एक विकसित श्वेत कमल है । उसके प्रत्येक पत्र पर पीले रंग से 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः' ये सोलह स्वर क्रमशः लिखे हुए हैं । बीच में पीले रंग से 'ह्न' लिखा है । इसी कमल पर हृदयस्थान में आठ पत्र के औंधे खिले हुए उड़ते काले रंग (धुएँ के से रंग) के एक कमल का चिन्तन करे, इसके प्रत्येक पत्र पर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इन आठ कर्मों को लिखा देखे । यह कमल अष्ट कर्मों का प्रतीक है।
तत्पश्चात साधक ऐसा चिन्तन करे कि प्रथम कमल के 'ह' अक्षर की रेफ से प्रथम धुंआ निकला, फिर अग्निशिखा निकली और अग्नि शिखा आगे बढ़कर दूसरे कमल को जला रही है। वह अग्निशिखा जलाती हुई उसके मस्तक पर आ गई। फिर वह अग्निशिखा शरीर के दोनों ओर रेखारूप में आकर नीचे दोनों कोनों से मिल गई और फिर त्रिकोण रूप हो गई। इस त्रिकोण की तीनों रेखाओं पर अग्निमय (अग्नि के बीजाक्षर) र र र र र र र अक्षरों को स्फूरायमान देखे तथा इसके तीनों कोनों में बाहर की
ओर अग्निमय स्वस्तिक का चिन्तन करे। भीतर तीनों कोनों में अग्निमय 'ॐ' लिखे हुए देखे । यह मण्डल भीतर से आठ कर्मों को और बाहर से शरीर