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________________ १८४ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका इन चारों में से पहले के दो ध्यानों से निवृत्त होना है, तथा पिछले दो ध्यानों में प्रवृत्त होना है। पहले के दो ध्यान अशुभ हैं, जबकि पिछले दो ध्यान शुभ हैं। ____ आर्तध्यान शोक, चिन्ता आदि से होता है । वह चार प्रकार का होता है—(१) इण्ट वियोगज- इष्ट स्त्री-पूत्र-धनादि के वियोग पर शोक करना, (२) अनिष्ट संयोगम-अनिष्ट-दुःखदायी पदार्थों या जीवों का संयोग होने पर शोक करना, (३) पोड़ा चिन्तवन-रोग आदि की पीड़ा होने पर दुःखी होना-विलाप करना, (४) निदान-आगामी सुख-भोगों की तीव्र इच्छा रखना। रौद्रध्यान हिंसा आदि भयंकर पापों के चिन्तन से होता है । वह भी चार प्रकार का है-(१) हिंसानन्द-हिंसा करने-कराने में तथा हिंसाकाण्ड सुनकर आनन्द मानना, (२) मृषानन्द-असत्य बोलने, बुलाने या बोला हुआ जानकर आनन्द मानना । (३) चौर्यानन्द-चोरी करने-कराने में या चोरी हुई सुनकर आनन्द मानना । (४) परिग्रहानन्द-परिग्रह बढ़ाने-बढ़वाने में तथा बढ़ता हुआ देखकर हर्ष मानना । धर्मध्यान- आत्मकल्याणरूप वह ध्यान, जिसमें एकाग्रचित्त होकर धर्मरूप या कल्याणरूप चिन्तन किया जाए, धर्मध्यान है। यह भी चार प्रकार का है-(१) आज्ञाविचय-जिनेन्द्र की आज्ञानुसार आगम के तत्त्वों या सिद्धान्तों का विचार करना, (२) अपायविचंय-अपने एवं अन्य जीवों के अज्ञान, कर्म, या रागद्वेषादि दोषों के स्वरूप को और इन्हें दूर करने के उपाय का चिन्तन करना, (३) विपाकविचय-स्वयं को तथा अन्य जीवों को सूखी या दुःखी देखकर कर्मविपाक (फल) विषयक चिन्तन करना (४) संस्थान विचय-इस लोक के या आत्मा के आकार या स्वरूप का मनोयोगपूर्वक विचार करना। संस्थानविचय-धर्मध्यान के चार उत्तर भेद हैं-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत ध्यान । १ (क) 'आर्त्त-रौद्र-धर्म-शुक्लानि ।' परे मोक्षहेत् । -तत्त्वार्थसूत्र अ० ६।२६-३० (ख) आर्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः । वेदनायाश्च । (ग) विपरीतं मनोज्ञानाम् । निदानं च । हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेश विरतयो: । आज्ञाऽपाय-विपाक-संस्थान विचयाय धर्म्यमप्रमतसंयतस्य । -तत्त्वार्थसूत्र अ० ६।३१-३७
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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