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कर्मवाद : एक मीमांसा | १८१
निकाचितबन्ध कहते हैं । इसमें उतना - अपवत्तना, उदीरणा आदि कोई भी करण नहीं हो सकता ।
उदय और सत्ता इन दो को छोड़कर कर्मों की बन्ध आदि ८ अवस्थाएँ करण कहलाती है । करण का अर्थ अध्यवसाय का बल या वीर्य ( प्रयत्न ) विशेष है । क्योंकि इन क्रियाओं को करते समय जीव को विशेष प्रयत्न करना होता है । "
१. कर्म प्रकृति गा० २