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१८० | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका
- (६) उदीरणा-जो कर्मदलिक भविष्य में उदय में आने वाले हैं, उन्हें विशिष्ट प्रयत्न तप, परीषहसहन, (विशिष्ट त्याग एवं ध्यान आदि) से खींचकर उदय में आए हुए कर्मदलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है । उंदीरणा में लम्बे समय के बाद उदय में आने वाले कर्मदलिकों को तत्काल उदय में लाकर भोग लिया जाता है।
(७) संक्रमण-जिस प्रयत्न-विशेष से कम एक स्वरूप को छोड़कर दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त करता है उस प्रयत्नविशेष को संक्रमण कहते हैं। संक्रमण चार प्रकार का है-(१) प्रकृतिसंक्रमण, (२) स्थितिसंक्रमण, (३) अनुभागसंक्रमण और (४) प्रदेशसंक्रमण ।' ____कर्मों की मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता। साथ ही आयुकर्म की चारों उत्तरप्रकृतियों में भी संक्रमण नहीं हो सकता; जैसेदेवायु का संक्रमण मनुष्य अथवा तिर्यंच आयु में नहीं हो सकता। .. .... उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा और संक्रमण-ये चारों 'उदय' में नहीं आए हुए कर्मदलिकों के ही होते हैं, उदयावलिका में प्रविष्ट (उदयावस्था को प्राप्त) कर्मदलिकों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता। ___(८) उपशम-कर्मों की सवथा अनुदय-अवस्था को उपशम कहते हैं। इसमें प्रदेशोदय या विपाकोदय दोनों ही नहीं रहते। उपशम अवस्था में उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण हो सकते हैं, लेकिन उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना ये चार करण नहीं होते। उपशम केवल मोहनीयकर्म का होता है, दूसरे किसी भी कर्म का नहीं।'
(६) निधत्ति-आग में तपाकर निकाली हुई सूइयों के पारस्परिक सम्बन्ध के समान पूर्वबद्ध कर्मों का आत्म-प्रदेशों के साथ परस्पर मिल जाना निधत्ति है। इसमें उद्वत्त ना-अपवत ना. दो कारण हो सकते हैं, उदीरणा
और संक्रमण आदि कारण नहीं हो सकते। . - (१०) निकाचना-आग में तपाकर निकालो हुई सूइयों को घन (हथौड़े) से कूटने पर जैसे वे एकाकार हो जाती हैं उसी प्रकार कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ अत्यन्त प्रगाढ़ सम्बन्ध हो जाने को निकाचना या
१ कर्मग्रन्थ भा०. २, गा० १ की व्याख्या २ अनुयोगद्वार स० १२६ . .