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कर्मवाद : एक मीमांसा | १७६
जो अनन्तानन्त कर्मयोग्यपुद्गल आत्मा के प्रदेशों के साथ बंध जाते हैं. चिपक जाते हैं, उसी का नाम बन्ध है ।'
(२-३) उवर्तना-अपना — स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को उद्वर्त्तना और घटने को अपवत्तना कहते हैं । कर्मों का बन्ध होने के पश्चात् ये दोनों क्रियाएँ होती हैं। अशुभकर्म बांधने के बाद जीव की भावना यदि और अधिक कलुषित हो जाए तो पहले बँधे हुए अशुभकर्मों की स्थिति बढ़ जाती है तथा फल देने की शक्ति भी तीव्र हो जाती है, इस क्रिया का नाम उवर्सना है, और अशुभ कर्म बँधने के बाद जीव यदि पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त ग्रहण आदि क्रियाएँ कर लेता है, तो पूर्वबद्ध अशुभकर्मों की स्थिति भी घट जाती है और फल देने की शक्ति भी मन्द हो जाती है । इस क्रिया को अपवर्त्तना कहते हैं । इन दोनों क्रियाओं के कारण कोई कर्म शीघ्र और तीव्र फल देता है, और कोई देर से तथा मन्द फल देता है । .
( ४ ) सत्ता- - बँधे हुए कर्म तत्काल फल नहीं देते। कुछ समय बाद उनका विपाक (परिपाक) होता है । अतः कर्म अपना फल न देकर जब तक आत्मा के साथ अस्तित्वरूप में रहते हैं, उस दशा को 'सत्ता' कहते हैं । सत्ता में रहे हुए कर्म जीव के परिणामों को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करते ।
(५) उदय-- विपाक ( फलदान) का समय आने पर कम जब अपना शुभाशुभ फल देने लगता है, तब वह उसका उदय माना जाता है । उदयकाल को कर्मनिपेककाल भी कहते हैं । उदय यदि शुभकर्म का हो तो जीव के सभी पासे सोधे पड़ने लगते हैं, उसे सुख की प्राप्ति होती है और अशुभकर्म का उदय हो तो सब कुछ उलटा होने लगता है । वह आपत्ति - विपत्तियों से घिर जाता है, उसे कष्ट, पीड़ा, शोक की अनुभूति होती है ।
उदय दो प्रकार का होता है- विपाकोदय और प्रदेशोदय । जो कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाता है, वह विपाकोदय ( फलोदय) और जो कर्म उदय में आकर भी बिना फल दिये नष्ट हो जाता है, वह प्रदेशोवय कहलाता है ।
बन्ध के प्रकार आदि के विषय में पहले 'बन्धतत्व' के प्रसंग में वर्णन किया जा चुका है
(ख) दश अवस्थाओं का वर्णन देखें, भगवती १।१२