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________________ १७८ | जैन तत्त्वकलिका : छठी कलिका दर्शनावरणीय के नौ अनुभाव - ( १ ) निद्रा, (२) निद्रानिद्रा, (३) प्रचला, (४) प्रचलाप्रचला, (५) स्त्यानद्धि, (६) चक्षुदर्शनावरण, (७) अचक्षुदर्शना वरण, (८) अवधिदर्शनावरण और (६) केवलदर्शनावरण | सातावेदनीय के आठ अनुभाव - (१-५) मनोज्ञ शब्द-रूप- गन्ध-रस स्पर्श, (६) मनःसुखता, (७) वचनसुखता, (८) कायसुखता । असातावेदनीय के आठ अनुभाव - सातावेदनीय के अनुभावों से बिलकुल अनुभाव असातावेदनीय के हैं । विपरीत मोहनीयकर्म के पाँच अनुभाव - (१) सम्यक्त्व वेदनीय, (२) मिथ्यात्ववेदनीय, (३) सम्यग् - मिध्यात्ववेदनीय, (४) कषायवेदनीय, (५) नोकषायवेदनीय | आयुकर्म के चार अनुभाव - (१) नरकायु, (२) तिर्यञ्चायु, (३) मनुष्यायु और (४) देवायु । शुभनामकर्म के चौदह अनुभाव - (१-५) इष्टशब्द-रूप-रस- गन्ध-स्पर्श ( ६-७ ) इष्टगति- स्थिति, (८) लावण्य, (६) यशः कीर्ति, (१०) उत्थान -कर्म-बलवीर्य - पुरुषकारपराक्रम, (११) इष्टस्वरता ( १२ ) कान्तस्वरता, (१३) मयस्वरता और (१४) मनोज्ञस्वरता । अशुभनामकर्म के चौदह अनुभाव - शुभनामकर्म के १४ अनुभावों से ठीक विपरीत १४ अनुभाव अशुभनामकर्म के हैं । यथा अनिष्ट शब्दादि । उच्च-गोत्रकर्म के आठ अनुभाव - जाति-कुल-बल-रूप-तपःपः श्रुत-लाभऐश्वर्य - विशिष्टता । ata गोत्रकर्म के आठ अनुभाव - ये पूर्वोक्त आठ के विपरीत जातिकुल-बल-रूप-तपः-श्रुत-लाभ - ऐश्वर्यविहीनता हैं । अन्तराय के पांच अनुभाव – (१) दानान्तराय, ( २ ) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय | कर्मों की दस अवस्थाएं कर्मों की १० अवस्थाएँ मानी गई हैं - ( १ ) बन्ध, (२) उवत्तना, (३) अपवर्त्तना, (४) सत्ता, (५) उदय, (६) उदीरणा, (७) संक्रमण, (८) (८) उपशम, (६) निधत्ति और (१०) निकाचना । इनका संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है (१) बन्ध - मिथ्यात्वादि आस्रवों के निमित्त से जीव के असंख्य प्रदेशों में हलचल पैदा होने से जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं, उस क्षेत्र में विद्यमान
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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