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कर्मवाद : एक मीमांसा | १७७
किन्तु बाद में ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों (औषध के कारण उस पुरुष का रोग मिट जाने से) उससे सुरूपता, सुवर्णता यावत् सुखानुभूति होती है, वह भोजन दुःखरूप में परिणत नहीं होता है। इसी प्रकार हे कालोदायी ! प्राणातिपातविरत यावत् मिथ्यादर्शन शल्यविरत जीवों को आपातभद्र नहीं लगती किन्तु बाद में जब उन शुभकर्मों का फल उपलब्ध होता है, तब आत्मा सब प्रकार से सुखों का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे कालोदायी ! जीवों के कल्याणकर्म उन्हें कल्याणफलविपाक से युक्त कर
निष्कर्ष यह है कि औषधमिश्रित भोजन करना पहले तो मन के प्रतिकूल लगता है, किन्तु पोछे वह भोजन सुखप्रद हो जाता है। ठीक उसी प्रकार हिंसादि से विरतिरूप शुभकर्म करने में अत्यन्त कठिन प्रतीत होते हैं, किन्तु जब वे फल देते हैं, तब परमसुखप्रद हो जाते हैं, इसलिए कल्याणकम आघातभद्र नहीं, किन्तु परिणामभद्र हैं।
- अतः कर्मों का फल शुभाशुभ भोजन को तरह स्वतः ही आत्मा को प्राप्त हो जाता है। इसीलिए कर्मों का फलविपाक (अनुभाव) भी एक प्रकार का नहीं होता, मुख्यतः शुभ और अशुभ दो प्रकार के रस (अनुभाग) के अनुसार निर्मित होते हैं।
अध्यवसायों की तरतमता को जैनदर्शन में लेश्या कहा है। ये लेश्याएँ ६ हैं--(१) कृष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्म एवं (६) शुक्ललेश्या। अध्यवसायों को तोवता-मन्दता के अनुसार शरीर में से प्रवाहित हए एक प्रकार के पुद्गलों में इन लेश्याओं के रंग की झलक पड़ती है। इनमें से प्रथम तोन लेश्याएँ अशुभ हैं और अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ हैं। लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का वर्णन भी शास्त्रों में गहराई से किया गया है।'
आठ कर्मों के अनुभाव (फलविपाक) इस प्रकार हैं
ज्ञानावरणीयकर्म के दस अनुभाव --(१) श्रोत्रावरण, (२) श्रोत्रविज्ञानावरण, (३) नेत्रावरण, (४) नेत्रविज्ञानावरण, (५) घ्राणावरण, (६) घ्राणविज्ञानावरण, (७) रसावरण, (८) रसविज्ञानावरण, (६) स्पर्शावरण, (१०) स्पर्शविज्ञानावरण ।
१ भगवती शतक ७, उद्देशक १०, सू० २२३-२२६ २ विशेष विवरण के लिए देखिए - उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ३४ (सम्पूर्ण)